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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
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यथावस्थितभावानां श्रद्धानं परमं सुखम् । मिथ्याविकल्पितार्थानां ग्रहणं दुःखमुत्तमम् ॥३०॥ विद्याभृतां सुराणां च ज्ञेयो भेदो विचक्षणः । तिलपर्वतयोस्तुल्यः शक्तिकान्त्यादिमिर्गुणः ॥३१॥ पकचन्दनयोर्यद्वदथवोपलरत्नयोः । तद्वत् खेचरलोकस्य देवलोकस्य चान्तरम् ॥३२॥ गर्भवासपरिक्लेशमनुभूय विधेर्वशात् । ततः समुपजायन्ते विद्यामानोपजीविनः ।।३३।। क्षेत्रवंशसमुदभूताः खे चरन्तीति खेचराः । अमराणां स्वभावस्तु मनोज्ञोऽयं विबुध्यताम् ॥३४॥ सुभाशुचिसर्वाङ्गा गर्भवासविवर्जिता । मांसास्थिक्लेदरहिता देवा अनिमिषेझणाः ॥३॥ जरारोगविहीवाश्च सततं यौवनानियताः । उदारतेजसा युक्ताः सुखसौभाग्यसागराः ॥३६॥ स्वभावविद्यासंपन्ना अवधिज्ञानलोचनाः । कामरूपधरा धीराः स्वच्छन्दगतिधारिणः ॥ ३७॥ अमी लङ्काश्रिता राजन् न देवा न च राक्षसाः । रक्षन्ति रक्षसां क्षेत्रमाहुतास्तेन राक्षसाः ॥३८॥ तईशानुक्रमो ज्ञेयो युगानासन्तरैः सह । पारम्पर्याद व्यतिक्रान्तः कालो नैकार्णकोपमः ।।३९॥ रक्षःप्रभृतिषु इलाध्येष्वतीतेघु बहुष्वपि । खण्डत्रयाधिपस्तस्य रावणोऽभवदन्वये ॥४॥ भगिनी दुखा नस्य रूपेणाप्रतिमा भुवि । प्राप्तस्तया महावीर्यो रमणः खरदूषणः ॥४१!!
तुर्दशसहस्राणि नृणां तस्य महात्मनाम् । प्रतीतो दूषणाख्यश्च सेनाधिपतिरूर्जितः ॥४२॥ दिक्कुसार इवोदारे धरणीजठरे स्थितम् । अलंकारपुरं तस्य स्थानमासीन्महौजसः ॥४३॥ शम्बूको नाम सुन्दश्च सुतौ तस्य बभूवतुः । बन्धुतश्च दशग्रीवाद् भुवि गौरवमाप सः ॥४४॥
राक्षसेन्द्रके कहनेपर जो विद्याधर बालक, लंकापुरी गया था उसीसे अनेक उत्तमोत्तम सन्तति उत्पन्न हुई ॥२९|| जो पदार्थ जिस प्रकार अवस्थित हैं उनका उसी प्रकार श्रद्धान करना सो परम सुख है और मिथ्याकल्पित पदार्थोंका ग्रहण करना सो अत्यधिक दुःख है ॥३०॥ विद्याधरों और देवोंके बीच बुद्धिमान् मनुष्योंको शक्ति, कान्ति आदि गुणोंके कारण तिल तथा पर्वतके समान भारी भेद समझना चाहिए ॥३१॥ जिस प्रकार कीचड़ और चन्दन तथा पाषाण और रत्नमें भेद है उसी प्रकार विद्याधर और देवोंमें भेद है ॥३२।। विद्याधर तो गर्भवासका दुःख भोगकर बादमें कर्मोदयकी अनुकलतासे विद्यामात्रके धारक होते हैं। ये विद्याधरोंके क्षेत्र-विजयार्ध पर्वतपर तथा उनके योग्य कुलोंमें उत्पन्न होते हैं तथा आकाशमें चलते हैं इसलिए खेचर कहलाते हैं। परन्तु देवोंका स्वभाव ही मनोहर है ।।३३-३४॥ देव सुन्दर रूप तथा पवित्र शरीरके धारक हैं, गर्भावाससे रहित हैं, मांस-हड्डी तथा स्वेद आदिसे दूर हैं और टिमकार रहित नेत्रोंके धारक हैं ॥३५॥ वे वृद्धावस्था तथा रोगोंसे रहित हैं, सदा यौवनसे सहित रहते हैं, उत्कृष्ट तेजसे युक्त, सूख और सौभाग्यके सागर, स्वाभाविक विद्याओंसे सम्पन्न, अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंके धारक, इच्छानुसार रूप रखनेवाले, धीर, वीर और स्वच्छन्द गतिसे विचरण करनेवाले हैं ॥३६-३७|| हे राजन् ! लंकामें रहनेवाले विद्याधर न देव हैं और न राक्षस हैं किन्तु राक्षस द्वीपकी रक्षा करते हैं इसलिए राक्षस कहलाते हैं ॥३८॥ अनेक युगान्तरोंके साथ उनके वंशका अनुक्रम चला आता है और उसी अनुक्रम-परम्पराके अनुसार अनेक सागर प्रमाण काल व्यतीत हो चुका है ।।३९|| राक्षस आदि बहुत-से प्रशंसनीय उत्तमोत्तम विद्याधर राजाओंके व्यतीत हो चुकनेपर उसी वंशमें तीन खण्डका स्वामी रावण उत्पन्न हुआ है ।।४०।। उसकी एक दुखा नामकी बहन है जो पृथ्वीपर अपने सौन्दर्यकी उपमा नहीं रखती। उसने महाशक्तिशाली खरदूषण नामक पति प्राप्त किया है ॥४१॥ अतिशय बलवान् खरदूषण चौदह हजार प्रमाण मनुष्योंका विश्वासप्राप्त सेनापति है ॥४२॥ वह दिक्कुमार-भवनवासी देवके समान उदार है । पृथ्वीके मध्य में स्थित अलंकारपुर नामका नगर उस महाप्रतापीका निवासस्थान है ॥४३॥ उसके शम्बूक और सुन्द नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। साथ ही वह अपने १. रूपेण प्रतिमा म.।
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