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चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
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वनान्तरस्थितं पुत्रं द्रष्टं यातास्मि सांप्रतम् । अपश्यन्तं च केनापि प्रत्यग्रच्छिन्नमूधकम् ॥१४॥ ततः शोणितधारामिनिःसृताभिनिरन्तरम् । प्रदीप्तमिव तन्मूले लक्ष्यते कीचकस्थलम् ॥१५॥ प्रशान्ताऽवस्थितं हत्वा में केनापि सुपुत्रकम् । खड्गरत्नं समुत्पन्न प्राप्तं पूजासमन्वितम् ॥१६॥ साहं दुःखसहस्राणां भाजनं माग्यवर्जिता । तन्मूर्धानं निधायाङ्क विप्रलापं प्रसेविता ।।१७॥ तावच तेन दुष्टेन शम्बूकवधकारिणा । उपगूढास्मि बाहुभ्यां कतु किमपि वान्छिता ॥१८॥ उक्तोऽपि मुञ्च मुचेति वनस्पर्शवशङ्गतः । न मुञ्चति हतात्मा मां कोऽपि नीचकुलोद्गतः ॥१९॥ नखैर्विलुप्य दन्तैश्च तेनाहं विजने वने । एतिका प्रापितावस्था काबला व पुमान् बली ॥२०॥ तथापि पुण्यशेषेण केनापि परिरक्षिता । अविखण्डितचारित्रा कृच्छाद्य निःसृता ततः ॥२१॥ सर्वविद्याधराधीशस्त्रिलोकक्षोभकारणः । भ्राता मे रावणः ख्यातः शक्रेणाप्यपराजितः ॥२२॥ खरदूषणनामा त्वं मर्ता कोऽपि विवर्ण्यसे । संप्राप्तास्मि तथाप्येतामवस्था दैवयोगतः ॥२३॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा शोकक्रोधसमाहतः । स्वयं महाजवो गत्वा दृष्ट्वा व्यापादितं सुतम् ॥२४॥ संपूर्णेन्दुसमानोऽपि पूर्वसारङ्गलोचनः । बभूव मीषणाकारो मध्यग्रीष्मार्कसनिमः ॥२५॥ आगतश्च द्रुतं भूयः प्रविश्य भवनं निजम् । सुहृद्भिः सहितश्चक्रे स्वल्पकालप्रधारणम् ॥२६॥ तत्र केचिद्भुतं प्रोचुः सचिवाः कर्कशाशयाः । राजकीयमभिप्रायं बुद्ध्वा सेवापरायणाः ॥२७॥ शम्बूकः साधितो येन खड्गरत्नं च हस्तितम् । असावुपेक्षितो राजन् वद किं न करिष्यति ॥२८॥
आंसुओंसे भीग रहे थे तथा बिखरे हुए बालोंसे आच्छन्न थे ॥१३॥ उसने कहा कि मैं अभी वनके मध्य में स्थित पुत्रको देखनेके लिए गयी थी सो मैंने देखा कि उसका मस्तक अभी हाल किसीने काट डाला है ॥१४॥ निरन्तर निकली हुई रुधिरकी धाराओंसे वंशस्थलका मूल भाग अग्निसे प्रज्वलितके समान दिखाई देता है ।।१५।। शान्तिसे बैठे हुए मेरे सुपुत्रको किसीने मारकर पूजाके साथ-साथ प्राप्त हुआ वह खड्गरत्न ले लिया है ॥१६॥ जो हजारों दुःखोंका पात्र तथा भाग्यसे हीन है ऐसी मैं पुत्रके मस्तकको गोदमें रखकर विलाप कर रही थी ॥१७॥ कि शम्बूकका वध करनेवाले उस दुष्टने दोनों भुजाओंसे मेरा आलिंगन किया तथा कुछ अनथं करनेकी इच्छा की ।।१८।। यद्यपि मैंने उससे कहा कि मुझे छोड़-छोड़ तो भी वह कोई नीच कुलोत्पन्न पुरुष था इसलिए गाढ़ स्पर्शके वशीभूत हुए उसने मुझे छोड़ा नहीं ॥१९॥ उसने उस निर्जन वनमें नखों तथा दांतोंसे छिन्न-भिन्न कर मुझे इस दशाको प्राप्त कराया है सो आप ही सोचिए कि अबला कहां और बलवान् पुरुष कहाँ ? ॥२०॥ इतना सब होनेपर भी किसी अवशिष्ट पुण्यने मेरी रक्षा की और मैं चारित्रको अखण्डित रखती हुई बड़े कष्टसे आज उससे बचकर निकल सकी हूँ ॥२१|| जो समस्त विद्याधरोंका स्वामी है, तीन लोकके क्षोभका कारण है, और इन्द्र भी जिसे पराजित नहीं कर सका ऐसा प्रसिद्ध रावण मेरा भाई है तथा तुम खरदूषण नामधारी अद्भत पुरुष मेरे भर्ता हो फिर भी दैवयोगसे मैं इस अवस्थाको प्राप्त हुई हूँ ॥२२-२३॥
तदनन्तर चन्द्रनखाके वचन सुनकर शोक और क्रोधसे ताड़ित हुए महावेगशाली खरदूषणने स्वयं जाकर पुत्रको मरा देखा ॥२४॥ यद्यपि वह पहले मृगके समान नेत्रोंको धारण करनेवाला और पूर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल था तो भी पुत्रको मरा देख ग्रीष्म ऋतुके मध्याह्नकालीन सूर्यके समान भयंकर हो गया ॥२५॥ उसने शीघ्र ही वापस आकर और अपने भवनमें प्रवेश कर मित्रोंके साथ स्वल्पकालीन मन्त्रणा को ॥२६।। उनमें से कठोर अभिप्रायके धारक तथा सेवामें तत्पर रहनेवाले कितने ही मन्त्री राजाका अभिप्राय जानकर शीघ्र हो कहने लगे कि जिसने शम्बुकको
१. प्रशान्तोऽवस्थितं म. । २. समाहितः म. ।
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