________________
चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
२४१
अरण्ये निर्मनुष्येऽस्मिन्कमुपेत्य प्रसाद्य च । पृच्छामि दुष्कृताचारो यो मे वार्ता निवेदयेत् ॥१२७॥ इयं ते प्राणतुल्येति चेतःश्रवणयोः परम् । कुर्यात्प्रहादनं को मे वचसामृतदायिना ॥१२८॥ दयावानीदशः कोऽस्मिन् लोके पुरुषपुंगवः । यो मे स्मिताननी कान्तां दर्शयेदघवर्जिताम् ॥१२९॥ हृदयागारमुद्दीप्तं कान्ताविरहवह्निना। उदन्तजलदानेन को मे निर्वापयिष्यति ॥१३०॥ इत्युक्त्वा परमोद्विग्नो महीनिहितलोचनः । असकृत् किमपि ध्यायंस्तस्थौ निश्चलविग्रहः ॥१३॥ अथ नात्यन्तदूरस्थचक्रवाकीस्वनं कलम् । समाकर्ण दृशं तस्या श्रवणं च न्यधापयत् ॥१३२॥ अचिन्तयदमुष्यास्तत्संगे गन्धसूचितम् । किमिदं पङ्कजवनं भवेद्याता कुतूहलात् ।।१३३॥ दृष्टपूर्व मनोहारि नानाकुसुमसंकुलम् । स्थानं हरति चेतोऽस्याः कदाचित्क्षणमात्रकम् ।।१३४॥ जगाम च तमुदेशं यावच्चक्राहमुन्दरी । मया विना व यातीति पुनरुद्वेगमागमत् ॥३५॥ भो भो महीधराधीश ! धातुभिर्विविधैश्चित ! सूनुर्दशरथस्य त्वां पद्माख्यः परिपृच्छते ।।१३६॥ विपुलस्तननम्राङ्गा बिम्बोष्टी हंसगामिनी। सन्नितम्बा मवेद दृष्टा सीता मे मनसः प्रिया ।।१३७॥ दृष्टादृष्टेति किं नक्षि ब्रहि ब्रहि व सा व सा । केवलं निगदस्येवं प्रतिशब्दोऽयमीदशः ॥१३८॥ इत्युक्त्वा पुनरध्यासीत् किम दृष्टेन चोदिता । कृतान्तशत्रुणा बाला समासन्ना सती सती ।।१३९।। चण्डोमियालयाऽत्यन्तं वेगवत्याविवेकया। कान्ता हृता भवेन्नद्या विद्येव दारितेच्छया ॥१४॥
मैं पापचारी निर्जन वनमें किसके पास जाकर तथा उसे प्रसन्न कर पूछ् जो मुझे प्रियाका समाचार बता सके ||१२७|| “यह तुम्हारी प्राणतुल्य प्रिया है" इस प्रकार अमृतको प्रदान करनेवाले वचनसे कौन पुरुष मेरे मन और कानोंको परम आनन्द प्रदान कर सकता है ? ||१२८|| इस संसारमें ऐसा कौन दयालु श्रेष्ठ पुरुष है जो मेरी मुसकुराती हुई निष्पाप कान्ताको मुझे दिखला सकता है ? ॥१२९।। प्रियाके विरहरूपी अग्निसे जलते हुए मेरे हृदयरूपी घरको कौन मनुष्य समाचाररूपी जल देकर शान्त करेगा ? ॥१३०॥ इस प्रकार कहकर जो परम उद्वेगको प्राप्त थे, पृथ्वीपर जिनके नेत्र लग रहे थे, और जिनका शरीर अत्यन्त निश्चल था ऐसे राम बार-बार कुछ ध्यान करते हुए बैठे थे ॥१३१॥ अथानन्तर कुछ ही दूरीपर उन्होंने चकवीका मनोहर शब्द सुना सो सुनकर उस दिशामें दृष्टि तथा कान दोनों ही लगाये ॥१३२॥ वे विचार करने लगे कि इस पर्वतके समीप ही गन्धसे सूचित होनेवाला कमल वन है सो क्या वह कुतूहलवश उस कमल वनमें गयी होगी? ॥१३३॥ नाना प्रकारके फूलोंसे व्याप्त तथा मनको हरण करनेवाला वह स्थान उसका पहलेसे देखा हुआ है सो सम्भव है कि वह कदाचित् क्षण-भरके लिए उसके चित्तको हर रहा हो ॥१३४॥ ऐसा विचारकर वे उस स्थानपर गये जहाँ चकवी थी। फिर 'मेरे बिना वह कहाँ जाती है' यह विचारकर वे पुनः उद्वेगको प्राप्त हो गये ॥१३५॥ अब वे पर्वतको लक्ष्य कर कहने लगे कि हे नाना प्रकारको धातुओंसे व्याप्त पर्वतराज ! राजा दशरथका का पुत्र पद्म (राम) तुमसे पूछता है ।।१३६॥ कि जिसका शरीर स्थूल स्तनोंसे नम्रीभूत है, जिसके ओठ बिम्बके समान हैं। जो हंसके समान चलती है तथा जिसके उत्तम नितम्ब हैं ऐसी मनको आनन्द देनेवाली सीता क्या आपने देखी है ? ॥१३७।। उसी समय पर्वतसे टकराकर रामके शब्दोंकी प्रतिध्वनि निकली जिसे सुनकर उन्होंने कहा कि क्या तुम यह कह रहे हो कि हाँ देखी है देखी है तो बताओ वह कहाँ है ? कहाँ है ? कुछ समय बाद निश्चय होनेपर उन्होंने कहा कि तुम तो केवल ऐसा ही कहते हो जैसा कि मैं कह रहा हूँ जान पड़ता है यह इस प्रकारको प्रतिध्वनि हो है ।।१३८|| इतना कहकर वे पुनः विचार करने लगे कि वह सती बाला दुर्दैवसे प्रेरित होकर कहाँ गयो
१.स्मितानन: प.,ब. । २. समाचाररूपसलिलदानेन । ३. सान्नतम्ब म.।
२-३१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org