________________
२४२
पपपुराणे किंवाऽत्यन्तक्षुधातेन नितान्तऋरचेतसा। 'इमारिणा भवेद्भुक्ता साधुवर्गस्य वस्सला ॥१४॥ पशोमैककार्यस्य सिंहस्योस्केसरस्य सा । म्रियते दृष्टिमात्रेण नखादिस्पर्शनाद्विना ।।१४२॥ भ्राता मम मृधे भीमे लक्ष्मणः संशयं श्रितः । सीतया विरहवायं तेन जानामि नो रतिम् ।।१४३।। जीवलोकमिमं वेदमि सकलं प्राप्तसंशयम् । जानामि च पुनः शून्यमहो दुःखस्य चित्रता ॥१४॥ दुःखस्य यावदेकस्य नावसानं बजाम्यहम् । द्वितीयं तावदायातमहो दुःखार्णवो महान् ॥१४५।। खापादस्य खण्डोऽयं हिमदग्धस्य पावकः । स्खलितस्यावटे पातः प्रायोऽना बहुत्वगाः ॥१४६।। ततः पर्यव्य विपिने पश्यन्मृगगरुत्मतः । विवेश स्वाश्रयं भूयः श्रिया शन्यमरण्यकम् ॥१४७॥ अत्यन्तदीनवदनः कृत्वा निज्यों धनुर्लताम् । सितश्लक्ष्णपटच्छिन्नस्तस्थौ पर्यस्य भूतले ॥१४८॥ भूयो भूयो बहु ध्यायन् क्षणनिश्चलविग्रहः । निराशतां परिप्राप्तः सूत्कारमुखराननः ॥१४९।।
अतिरुचिराच्छन्दः महानरानिति पुरुदुःखलवितान् पुराकृतादसु अहो जना भृशमवलोक्व दीयतां मतिः सदा जिनवरधर्मकर्मणि ||१५०॥
गत्।
होगी ? जिस प्रकारको इच्छा विद्याको हर लेती है उसी प्रकार जिसमें बड़ी-बड़ी तीक्ष्ण तरंगें उठ रही हैं। जो अत्यन्त वेगसे बहती है तथा जिसमें विवेक नहीं है ऐसी नदीने कहीं प्रियाको नहीं हर लिया हो ॥१३९-१४०॥ अथवा अत्यन्त भूखसे पीड़ित तथा अतिशय कर चित्तके धारक किसी सिंहने साधुओंके साथ स्नेह करनेवाली उस प्रियाको खा लिया है ।।१४१॥
जिसका कार्य अत्यन्त भयंकर है तथा जिसकी गरदनके बाल खड़े हुए हैं ऐसे सिंहके देखने मात्रसे नखादिके स्पर्शके बिना ही वह मर गयी होगी ॥१४२॥ मेरा भाई लक्ष्मण भयंकर युद्धमें संशयको प्राप्त है और इधर यह सीताके साथ विरह या पड़ा है इससे मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।।१४३॥ ___मैं इस समस्त संसारको संशयमें पड़ा जानता हूँ अथवा ऐसा जान पड़ता है कि समस्त संसार शून्य दशाको प्राप्त हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि दुःखकी बड़ी विचित्रता है ॥१४४॥ जबतक मैं एक दुःखके अन्तको प्राप्त नहीं हो पाता हूँ तबतक दूसरा दुःख आ पड़ता है। अहो ! यह दुःखरूपी सागर बहुत विशाल है ॥१४॥
प्रायः देखा जाता है कि जो पैर लँगड़ा होता है उसीमें चोट लगती है, जो वृक्ष तुषारसे सूख जाता है उसीमें आग लगती है और जो फिसलता है वही गतंमें पड़ता है प्रायः करके अनर्थ बहु संख्या में आते हैं ।।१४६।। तदनन्तर वनमें भ्रमण कर मृग और पक्षियोंको देखते हुए राम अपने रहने के स्थानस्वरूप वनमें पुनः प्रविष्ट हुए। वह वन उस समय सीताके बिना शोभासे शून्य जान पड़ता था ॥१४७॥
तदनन्तर जिनका मुख अत्यन्त दीन था तथा जिन्होंने सफेद और महीन वस्त्र ओढ़ रखा था ऐसे राम धनुषको डोरी रहित कर पृथिवीपर पड़ रहे ॥१४८।। वे बार-बार बहत देर तक ध्यान करते रहते थे, क्षण-क्षणमें उनका शरीर निश्चल हो जाता था, वे निराशताको प्राप्त थे तथा सूत्कार शब्दसे उनका मुख शब्दायमान हो रहा था ॥१४९।।
___ गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो जनो ! इस प्रकार पूर्वोपार्जित पाप कर्मके उदयसे बड़े-बड़े पुरुषोंको अतिशय दुःखी देख, जिनेन्द्र कथित धर्ममें सदा बुद्धि लगाओ ॥१५०॥
१. सिंहेन । २. नखाहि म. । ३. निष्ठां म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-www.jainelibrary.org