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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
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नये भवप्रमवदिकारसंगतेः पराङ्मुखा जिनवचनान्युपासते । वशीकृतान् शरणविवर्जितानमून् तपत्यलं स्वकृतरविः सुदुस्सहः ॥१५१॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते सीताहरणरामविलापाभिधानं
नाम चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ॥४४॥
जो मनुष्य संसार सम्बन्धी विकारोंकी संगतिसे दूर रहकर जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंको उपासना नहीं करते हैं उन शरणरहित तथा इन्द्रियोंके वशीभूत मनुष्योंको अपना पूर्वोपार्जित कमरूपी दुःसह सूर्य सदा सन्तप्त करता रहता है ।।१५१॥
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरितमें सीताहरण और
रामविलापका वर्णन करनेवाला चौवालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४४॥
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