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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
२३१ 'अयोगमोहितं चेतश्च्युतं कर्तव्यवस्तुनः । सांप्रतं शोकशिखिना दह्यते मे निरङ्कुशम् ॥११९॥ जाता सा विषये कस्मिन् कस्य वा दुहिता भवेत् । यूथभ्रष्टा मृगीवेयं कुतः प्राप्ता सुलोचना ॥१२॥ संचिन्त्येति कृतभ्रान्तिस्तामपश्यन् समाकुलः । मेने तद्वनमाकाशपुष्पतुल्यं समन्ततः ॥१२१॥
___ मालिनीवृत्तम् अविदितपरमार्थैरेवमर्थेन हीनं न खलु विमलचित्तैः कार्यमारम्भणीयम् । अविषयकृतचित्ता तत्समासक्तिमुक्ता दधति परमशोकं बालवबुद्धिहीनाः ॥१२२॥ किमिदमिह मनो मे किं नियोज्यं तदिष्टं कथमनुगतकृत्यैः प्राप्यते शं मनुष्यैः । इति कृतमतिरुच्चयों विवेकस्य कर्ता रविरिव विमलोऽसौ राजते लोकमार्ग ॥१२३॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते शम्बुकवधाभिख्यानं नाम त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ॥४३॥
करने लगे कि जो,रूप-यौवन-सौन्दर्य तथा अनेक गुणोंसे परिपूर्ण थी, जिसके स्तन अतिशय सघन थे और जो कामोन्मत्त हस्तिनीके समान चलती थी ऐसी उस सतीका मैंने आने तथा दिखनेके साथ ही स्तनोंको पीड़ित करनेवाला आलिंगन क्यों नहीं किया ॥११६-११८।। उसके वियोगसे मोहित हुआ मेरा चित कर्तव्य वस्तु—करने योग्य कार्यसे च्युत होता हुआ इस समय शोकरूपी अग्निके द्वारा निर्वाध रूपसे जल रहा है ॥११९॥ वह किस देश में उत्पन्न हुई है। किसकी पुत्री है ? यह उत्तम नेत्रोंकी धारक झुण्डसे बिछुड़ी हरिणोके समान यहाँ कहाँसे आयी थी?॥१२०॥ इस प्रकार विचारकर जो इधर-उधर भ्रमण कर रहे थे तथा उसे न देखकर जो अत्यन्त व्याकुल थे ऐसे लक्ष्मणने उस वनको सब ओरसे आकाशपुष्पके समान माना था ॥१२१॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! निर्मल चित्तके धारक मनुष्योंको इस तरह परमार्थके जाने बिना निरर्थक कार्य प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। क्योंकि जो बालकोंके समान निर्बुद्धि मनुष्य अयोग्य विषयमें चित्त लगाते हैं वे उसकी प्राप्तिसे रहित हो परम शोकको धारण करते हैं ।।१२२।। 'यह क्या है ? इसमें मुझे मन क्यों लगाना चाहिए ? वह इष्ट क्यों है ? और करने योग्य कार्योंका अनुसरण करनेवाले मनुष्य ही सुख-शान्ति प्राप्त कर पाते हैं। इस प्रकार विचारकर जो उत्कृष्ट विवेकका कर्ता होता है वह सूर्यको तरह निर्मल होता हुआ लोकके मार्ग में सुशोभित होता है ॥१२३॥
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरितमें शम्बूकके
बधका वर्णन करनेवाला तैंतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४३॥
१. अथोगं भे हृतं ( ? ) म. । २. सत्समाशक्तिमुत्ता :
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