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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
इति ध्यात्वावलोकन्या विद्ययोपायमञ्जसा । विवेद हरणे तस्यास्तेषां नामकुलादि यत् ॥७२॥ अयं स लक्ष्मणः ख्यातो बहुभिः कृतरोधनः । अयं स रामः सीतेयं सा गुणैः परिकीर्तिता ॥७३॥ अमुष्य व्यसनं कृत्वा सिंहनादं स धन्विनः । गरुत्मानिव गृध्रस्य सीतां पेशीभिवाददे ॥ ७४ ॥ जायावर प्रदीप्तोऽयमजय्यः खरदूषणः । शक्यादिभिः क्षणादेतौ भ्रातरौ मारयिष्यति ॥ ७५ ॥ महाप्रकृष्टरस्य नदस्योदोररंहसः । तटयोः पातने शक्तिः केन न प्रतिपद्यते ॥७६ || इति संचिन्त्य कामार्तः शिशुवत्स्वल्पमानसः । विषवन्मरणोपायं हरणं प्रति निश्चितः ॥७७॥ शस्त्रान्धकारिते जाते तयोरथ महाहवे । कृत्वा सिंहरवं रामरामेति च मुहुर्जगौ ॥७८॥ तं च सिंहरवं श्रुत्वा स्फुटं लक्ष्मणमाषितम् । प्रीत्यारतिमयात् पद्मो व्याकुलीभूतमानसः ।। ७९ ।। निर्माल्यैर्जानीं सम्यक् प्रच्छाद्यात्यन्तभूरिभिः । क्षणमेकं प्रिये तिष्ठ मा भैषीरिति संगदन् ॥ ८०॥ वयस्यवनितां तावज्जटायू रक्ष यत्नतः । किंचिदस्मत्कृतं भद्र स्मरस्युपकृतं यदि ॥ ८१॥ इत्युक्त्वा वार्यमाणोऽपि शकुनैः क्रन्दनाकुलैः । सतीं मुक्त्वा जनेऽरण्ये वेगवान् प्राविशद् रणम् ॥८२॥ अत्रान्तरे समागत्य विद्यालोकेन कोविदः । सीतामुत्क्षिप्य बाहुभ्यां नलिनीमिव वारणः ॥ ८३ ॥ कामदाहगृहीतात्मा विस्मृताशेषधर्मधीः । आरोपयितुमारेभे पुष्पकं गगनस्थितम् ॥८४॥
तत्पर हो एकान्त में प्रयत्न करता है सो ठीक ही है क्योंकि लोक परमगुरु है अर्थात् संसारके प्राणी बड़े चतुर हैं ||७१ || इस प्रकार विचारकर उसने अवलोकिनी विद्याके द्वारा सीताके हरण करनेका वास्तविक उपाय जान लिया। राम-लक्ष्मण तथा सीताके नाम-कुल आदि सबका उसे ठीक-ठीक ज्ञान हो गया ॥ ७२ ॥ जिसे अनेक लोग घेरे हुए हैं ऐसा यह वह लक्ष्मण है, यह राम है, ओर यह गुणोंसे प्रसद्धि सोता है ||१३|| इसके बाद उस रावणने इस धनुर्धारी रामके लिए आपत्तिस्वरूप सिंहनाद करके सीताको ऐसे पकड़ लिया जैसे गरुडपक्षी गीधके मुखकी मांसपेशीको ले लेता है ||७४ || स्त्रीके वेरसे अत्यन्त क्रोधको प्राप्त हुआ यह खरदूषण अजेय है तथा शक्ति आदि शस्त्रोंसे इन दोनों भाइयोंको क्षण-भर में मार डालेगा || ७५ || जिसमें बहुत बड़ा पूर चढ़ रहा है तथा जिसका वेग अत्यन्त तीव्र है ऐसे नदमें दोनों तटोंको गिरानेकी शक्ति है यह कौन नहीं मानता है ? ॥७६ || ऐसा विचारकर कामसे पीड़ित तथा बालकके समान विवेकशून्य हृदयको धारण करनेवाले रावणने सीता हरण करनेका उस प्रकार निश्चय किया कि जिस प्रकार कोई मारनेके लिए विषपानका निश्चय करता है ||७७||
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अथानन्तर जब लक्ष्मण और खरदूषण के बीच शस्त्रोंके अन्धकारसे युक्त महायुद्ध हो रह था तब रावणने सिंहनाद कर बार-बार राम ! राम !! इस प्रकार उच्चारण किया ॥७८॥ उ सिंहनादको सुनकर रामने समझा कि यह लक्ष्मणने ही किया है ऐसा विचारकर वे प्रीतिवर व्याकुलित चित्त हो अरतिको प्राप्त हुए || ७९ || तदनन्तर उन्होंने सीताको अत्यधिक मालाओं से अच्छी तरह ढक दिया और कहा कि हे प्रिये ! तुम क्षण-भर यहां ठहरो, भय मत करो ||८०| सीतासे इतना कहने के बाद उन्होंने जटायुसे भी कहा कि हे भद्र ! यदि तुम मेरे द्वारा किये हुए उपकारका स्मरण रखते हो तो मित्रको स्त्री की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना ॥८१॥ इतना कहकर यद्यपि क्रन्दन करनेवाले पक्षियोंने उन्हें रोका भी था तो भी वे निर्जन वनमें सीताको छोड़कर वे युद्ध में प्रविष्ट हो गये ॥८२॥
इसी बीच में विद्या आलोकसे निपुण रावण, कपालिनीको हाथीके समान दोनों भुजाओंसे सीताको उठाकर आकाश में स्थित पुष्पक विमानमें चढ़ानेका प्रयत्न करने लगा। उस समय
१. जायावीरः ख. । २. नदस्योद्दार म. । ३. प्रीत्या + अरतिम् + अयात् ।
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