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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
२३५ किं वा दुष्टद्विजाः केचिदन्ये त्वदायकारिणः । समर्पय प्रिये चापं प्रलयं प्रापयाम्यमून् ॥४३॥ अथासन्नत्वमागच्छद् विविधायुधसंकुलन् । वातेरिताभ्रवृन्दाभं निरीक्ष्य सुमहद्वलम् ॥४४॥ जगाद राघवः किं नु नन्दीश्वरममी सुराः । जिनेन्द्रान् वन्दितं भक्तया प्रस्थिताः स्युर्महौजसः ॥४॥ आहो वंशस्थलं छित्वा हत्वा कमपि मानवम् । असिरस्ने गृहीतेऽस्मिन् प्राप्ता सायाविवैरिणः ॥४६॥ दुश्शीलया तया नूनं स्त्रिया मायाप्रदीगया । निजाः संक्षोभिता एते स्युरस्मदुष्कृति प्रति ॥४७॥ नात्र युक्तमवज्ञात सैन्यमभ्यर्णताभितम् । इत्युक्त्वा कवचे दृष्टिं कार्मुके च न्यपातयत् ॥१८॥ रुतस्तमञ्जलिं कृत्वा सुमित्रानयोगदत् । मयि स्थिते न संरम्भस्तव देव विराजते ।।४९।। संरक्ष राजपुत्री त्वं प्रत्यरातिं व्रजाम्यहम् । क्षेत्रा द सिंहनादेन गम पचापदुद्भवेत् ॥५०॥ इत्युक्त्वा कङ्कटच्छन्नः ससुपात्तमहायुधः । योद्धुमशुथतः श्रीमालक्ष्मणः प्रेयरिस्थितः ॥५॥ दृष्ट्वा तमुत्तसाकारं वीरं पुरुषपुंगव । पर्वस्तृणन् विहायःस्था जलदा इव पर्वतम् ॥५२॥ शक्तिमुद्गरचकाणि कुन्तवाणांश्च खेचरैः । परिकीर्णान्यसौ सस्या शस्त्रैरेव न्यवारयत् ॥५३।। निरुध्य सर्वशस्त्राणि खेचरैः प्रहितानि सः । वज्रदण्डान् शरान् मोक्तुं प्रवृत्तो व्योमगाहिनः ॥५४॥ एककेनैव सा तेन विद्याधरमहाचमः । द्धा बाणैः कदिच्छेत्र विज्ञानः संयतात्मना ॥५५॥ माणिक्यश इलाकानि राजनानानि कुण्डलैः । पेतुः शिरांसि खाद् भूमौ खसरः कसलानि वा ॥५६॥
शैलाभा द्विरदाः पेतुरश्वैः सह महामटाः । कुर्वते निनदं भीमं संदृष्टरदवाससः ॥७॥ हिलानेवाले राजहंस पक्षी आकाशरूपी आँगनमें शब्द करते हुए जा रहे हैं ।।४२॥ अथवा तुझे भय उत्पन्न करनेवाले कोई दूसरे दुष्ट पक्षी ही जा रहे हैं। हे प्रिये ! धनुष देओ, जिससे मैं इन्हें प्रलयको प्राप्त करा दूं ॥४३॥ तदनन्तर नाना प्रकारके शस्त्रोंसे युक्त, वायुसे प्रेरित मेघसमूहके समान दीखनेवाली बड़ी भारी सेनाको समीपमें आती देख रामने कहा कि क्या ये महातेजके धारक देव भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र देवकी वन्दना करनेके लिए नन्दीश्वर द्वीपको जा रहे हैं ॥४४-४५|| अथवा बाँसके भिड़ेको छेदकर तथा किसी मनुष्यको मारकर यह खड्गरत्न लक्ष्मणने लिया है सो मायावी शत्रु ही आ पहुंचे हैं ॥४६॥ अथवा जान पड़ता है कि उस दुराचारिणी मायाविनी स्त्रीने हम लोगोंको दुःख देनेके लिए आत्मीय जनोंको क्षोभित किया है ।।४७।। अब निकट में आयी हुई सेनाकी उपेक्षा करना उचित नहीं है ऐसा कहकर रामने कवच और धनुष पर दृष्टि डाली ।।४८|| तब लक्ष्मणने हाथ जोड़कर कहा कि हे देव! मेरे रहते हुए आपका क्रोध करना शोभा नहीं देता ||४९|| आप राजपुत्रीकी रक्षा कीजिए और मैं शत्रुकी ओर जाता हूँ। यदि मुझपर आपत्ति आवेगी तो मेरे सिंहनादसे उसे समझ लेना ।।५०॥ इतना कहकर जो कवचसे आच्छादित हैं तथा जिसने महाशस्त्र धारण किये हैं ऐसे लक्ष्मण युद्ध के लिए तत्पर हो शत्रुकी ओर मुख कर खड़े हो गये ।।५१|| उत्तम आकारके धारक, मनुष्योंमें श्रेष्ठ तथा अतिशय शूरवीर उन लक्ष्मणको देखकर आकाशमें स्थित विद्याधरोंने उन्हें इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि मेघ किसी पर्वतको घेर लेते हैं ॥५२॥ विद्याधरोंके द्वारा चलाये हुए शक्ति, मुद्गर, चक्र, भाले और बाणोंका लक्ष्मणने अपने शस्त्रोंसे अच्छी तरह निवारण कर दिया ॥५३।। तदनन्तर वे विद्याधरोंके द्वारा चलाये हुए समस्त शस्त्रोंको रोककर उनकी ओर वज्रमय बाण छोड़नेको तत्पर हए ॥५४॥ अकेले लक्ष्मणने विद्याधरोंकी वह बड़ी भारी सेना अपने बाणोंसे उस प्रकार रोक लो जिस प्रकार कि मुनि विशिष्ट ज्ञानके द्वारा खोटी इच्छाको रोक लेते हैं ॥५५।। मणिखण्डोंसे युक्त तथा कुण्डलोंसे सुशोभित शत्रुओंके शिर आकाशरूपी सरोवरके कमलोंके समान कट-कटकर आकाशसे पृथिवीपर गिरने लगे ॥५६॥ पर्वतोंके समान १. छन्नसमुपात्त- म. । २. प्रत्यरि ग.। ३. कुत्सिता इच्छा कदच्छिा 'कोः कत्तत्पुरुषेऽचि' इति कुस्थाने
कदादेशः । ४. भूमिः । ५. गगनसरोवरकमलानि इव शिरांसि । ६. संदष्टौष्ठाः इत्यर्थः, संदटरववाससः म. । Jain Education International
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