________________
पद्मपुराणे
ऊचुरन्ये विवेकस्था नाथ नेदं लघुक्रियम्' । सामन्तान् ढोकाशेषान् रावणाय च कथ्यताम् ॥२९॥ यस्यासिरत्नमुत्पन्नं सुसाध्यः स कथं भवेत् । तस्मात् संघातकार्येऽस्मिंस्त्वरा कर्तुं न युज्यते ॥ ३०॥ गुरुवाक्यानुरोधेन राक्षसाधिपसंविदे । दूतः संप्रेषितस्तेन युवा लङ्कां महाजवः ॥३१॥ राजधैर्यात् कुतोऽप्येष चिरं यावदवस्थितः । रावणस्थान्तिके दूतः कार्य साधनतत्परः ॥३२॥ तीव्रक्रोधपरीतात्मा तावच्च खरदूषणः । अभाषत पुनः पुत्रगुणप्रेपितमानसः ॥३३॥ मायाविनिहतैः क्षुद्रेर्जन्तुभिर्भूमिगोचरैः । दिव्यलेनार्णवः लुब्धस्तरितुं नैव शक्यते ॥ ३४ ॥ धिगिदं शौर्यमस्माकं सहाबान् यदि वान्छति । द्वितीयोऽपि कथं बाहुरिय्यते मम बाहुना ॥ इत्युक्त्वा परमं विदभिमानं त्वरान्वितः । उत्पपात सुहन्मध्यादाकाशं स्फुरिताननः ॥ ३६॥ तोकान्तपरं दृष्ट्वा सन्नद्धानि क्षणान्तरे । चतुर्दशसहस्राणि सुहृदां निर्ययुः पुरात् ॥३७॥ तस्य राक्षससैन्यस्य श्रुत्वा वादिस्वनम् । सागरनिर्घोषं वैविली त्रासमागता ||३८|| किं किमेतहो नाथ प्राप्तमित्युद्वस्वतः | आलिङ्गविस्म जीवेशं वल्ली कल्पतरुं यथा ॥ ३९ ॥ न भेतव्यं न भेतव्यं इति तां परियान्स्थ्य सः । अचिन्तयदयं कस्य भवेच्छन्दः सुन्दरः ॥४०॥ रवः किमेष सिंहस्य भवेजलधरस्य वा । आहोस्विदुनाथस्य पूरयत्यखिलं नभः ॥४१॥ उवाच च प्रिये नूनी चतुरगामिनः । नादिनः प्रबलपक्षा राजहंसा नमोऽङ्गणे ॥ ४२ ॥
२३४
मारा है तथा खड्गरत्न हथिया लिया है । हे राजन् ! यदि उसकी उपेक्षा की जायेगी तो वह क्या नहीं करेगा ? ।।२७-२८।। कुछ विवेको मन्त्री इस प्रकार बोले कि हे नाथ ! यह कार्य जल्दी करनेका नहीं है इसलिए सब सामन्तोंको बुलाओ और रावणको भी ख़बर दी जाये || २९ || जिसे खड्गरत्न प्राप्त हुआ है वह सुखपूर्वक वश में कैसे किया जा सकता है ? इसलिए मिलकर समूह के द्वारा करने योग्य इस कार्य में उतावली करना ठीक नहीं है ||३०||
तदनन्तर उसने गुरुजनोंके वचनोंके अनुरोधसे रावणको खबर देनेके लिए एक तरुण तथा वेगशाली दूत लंकाको भेजा ||३१|| उधर कार्य सिद्ध करनेमें तत्पर रहनेवाला वह दूत, किसी राज्यधैके कारण चिर काल तक रावणके पास बैठा रहा ||३२|| इधर तीव्र क्रोधसे जिसकी आत्मा व्याप्त हो रही थी तथा जिसका मन पुत्रके गुणोंमें बार-बार जा रहा था ऐसा खरदूषण पुनः बोला कि मायासे रहित क्षुद्र भूमिगोचरी प्राणियोंके द्वारा, क्षोभको प्राप्त हुआ दिव्य सेनारूपी सागर नहीं तेरा जा सकता ||३३ - ३४|| हमारी इस शूरवीरताको धिक्कार है जो अन्य सहायकों की वांछा करती है । मेरी वह भुजा किस कामकी जो अपनी ही दूसरी भुजाकी इच्छा करती है ||३५|| इस प्रकार कहकर जो परम अभिमान को धारण कर रहा था तथा क्रोधके कारण जिसका मुख कम्पित हो रहा था ऐसा शीघ्रता से भरा खरदूषण मित्रोंके बीचसे उठकर आकाशमें जा उड़ा ||३६|| उसे हमें तत्पर देख उसके चौदह हजार मित्र जो पहलेसे तैयार थे क्षण भरमें नगरसे बाहर निकल पड़े ||३७|| राक्षसोंकी उस सेनाके, क्षोभको प्राप्त हुए सागरके समान शब्दवाले वादित्रोंका शब्द सुनकर सीता को प्राप्त हुई ||३८|! हे नाथ ! यह क्या है ? क्या है ? इस प्रकार शब्दों का उच्चारण करती हुई वह भर्तारसे उस प्रकार लिपट गयी जिस प्रकार कि लता कल्प वृक्षसे लिपट जाती है ||३९|| 'नहीं डरना चाहिए, नहीं डरना चाहिए' इस प्रकार उसे सान्त्वना देकर रामने विचार किया कि यह अत्यन्त दुर्धर शब्द किसका होना चाहिए ? ||४०|| क्या यह सिंहका शब्द है या मेघकी ध्वनि है अथवा समुद्रकी गर्जना समस्त आकाशको व्याप्त कर रही है। ||४१ || उन्होंने सीतासे कहा कि हे प्रिये ! जान पड़ता है ये मनोहर गमन करनेवाले तथा पंखोंको
१. लघुक्रियः म । २. वया ए. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org: