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चतुश्चत्वारिंशनमं पर्व
अनिच्छयाथ विध्वस्त खरबध्वा मनोभवे । दुःग्यपूरः पुनः प्राप्तो भग्नरोधो यथा नदः ॥१॥ नकार व्याकुलीभूता विविध परिदेवनम् । शोकपावकतप्ताङ्गा विवसा बहुला यथा ॥२॥ वहन्ती चापमानं तं क्रोधदैन्यस्थमानसा । विगलद्भरिनेत्राम्बुर्दू पणेन निरक्ष्यत ॥३॥ तां विनटर्ति दृष्ट्वा धरणीधूलिधूसराम् । प्रकीर्णकेशसंमारां शिथिलीभूतमेखलाम् ।।४।। नवविक्षतकोरुकुवाणी सशोणिताम् । कर्णामरगनिमुना हारलावण्यवर्जिताम् ।।५।। विच्छिन्नकञ्चका भ्रष्टस्वभावतनुतेजसम् । आलोडितां गजेनेव नलिनी मदवाहिना ॥६॥ पप्रच्छ परिसान्त्व्येष कान्ते शीघ्र निवेदय । अवस्थामिमकां केन प्रापितासि दुरात्मनः ॥७॥ अद्येन्दुरष्टमः कस्य मृत्युना कोऽवलोकितः । गिरेः स्वपिति कः शृङ्गे मूढः क्रीडति कोऽहिना ॥८॥ कोऽन्धः कूपं समापन्नो दैवं कस्याशुभावहम् । मत्क्रोधाग्नावयं दीप्ते शलभः कः पतिप्यति ॥५|| धिक तं पशुसमं पापं विवेकत्यक्तमानसम् । अपवित्रसमाचारं लोकद्वितयदृषितम् ॥१०॥ अलं रुदित्वा नान्येव काचित्वं प्राकृताबला । स्पृष्टा येनासितं शंस वाडवाग्निशिखासमा ।।११।। अद्येव तं दुराचारं कृत्वा हस्ततलाहतम् । नेप्ये प्रेतगति सिंहो यथा नागं निरंकुशम् ।।१२॥ एवमुक्ता विसृज्यासौ रुदितं कृच्छ्रतः परात् । अनक्लिन्नालकाच्छन्नगण्डागादीत् सगद्गदम् ॥१३॥
नन्तर जब अनिच्छासे चन्द्रनखाका काम नष्ट हो गया तब तटको भग्न करनेवाले नदके समान दःखका पुर उसे पुनः प्राप्त हो गया ॥१॥ जिसका शरीर शोकरूपी अग्निसे सन्तप्त हो रहा था ऐसी चन्द्रनखा, मृतवत्सा गायके समान व्याकुल होकर नाना प्रकारका विलाप करने लगी ।।२।। जो पूर्वोक्त अपमानको धारण कर रही थी, जिसका मन क्रोध और दीनतामें स्थित था तया जिसके नेत्रोंसे अश्रु झर रहे थे ऐसी चन्द्रनखाको खरदूषणने देखा ||३|| जिसका धैर्य नष्ट हो गया था, जो पथिवीकी धलिसे धसरित थी, जिसके केशोंका समह बिखरा हआ था, जिसकी मेखला ढीली हो गयी थी, जिसकी बगलों, जाँघों तथा स्तनोंकी भूमि नखोंसे विक्षत थी, जो रुधिरसे युक्त थी, जिसके कर्णाभरण गिर गये थे, जो हार और लावण्यसे रहित थी, जिसकी चोली फट गयी थी, जिसके शरीरका स्वाभाविक तेज नष्ट हो गया था, और जो मदोन्मत्त हाथीके द्वारा मर्दित कमलिनीके समान जान पड़ती थी ऐसी चन्द्रनखाको सान्त्वना देकर खरदूषणने पूछा कि हे प्रिये ! शीघ्र ही बताओ तुम किस दुष्टके द्वारा इस अवस्थाको प्राप्त करायी गयी हो ? ।।४-७|| आज किसका आठवाँ चन्द्रमा है ? मृत्युके द्वारा कौन देखा गया है ? पहाड़की चोटीपर कौन सो रहा है
और कोन मूर्ख सर्पके साथ क्रोड़ा कर रहा है ? ॥८। कौन अन्धा कुएँ में आकर पड़ा है ? किसका देव अशुभ है ? और मेरी प्रज्वलित क्रोधाग्निमें कौन पतंग बनकर गिरना चाहता है ? ॥९॥ जिसका मन विवेकसे रहित है, जो अपवित्र आचरण करनेवाला है और जिसने दोनों लोकोंको दूषित किया है उस पशुतुल्य पापीको धिक्कार है ।।१०।। रोना व्यर्थ है तुम अन्य साधारण स्त्रोके समान थोड़े ही हो । वडवानलकी शिखाके समान जिसने तुम्हें छुआ है उसका नाम कहो ॥११|| निरंकुश हाथोको सिंहके समान मैं आज ही उसे हस्ततलसे पीसकर यमराजके घर भेज दूंगा ।।१२।। इस प्रकार कहनेपर कड़े कष्टसे रोना छोड़कर वह गद्गद वाणीमें बोली। उस समय उसके कपोल
१. चन्द्रनखायाः । २. भग्नरोधा, भग्नं रोधो यस्यासौ । भग्नरोधो म. । ३. गौरिव । ४. मदवाहिनी म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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