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त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व
२२९ ततः क्षणात् परित्यज्य शोकं नष्टास्रसंततिः । गृहीत्वा परमं क्रोधमुत्थाय स्फुरितानना ॥८९॥ संचरन्ती तमुद्देशं स्वैरं मार्गानुलक्षितम् । निरक्षत युवानौ तौ चित्तबन्धनकारिणौ ॥१०॥ विनाशमगमत्तस्याः क्रोधोऽसौ तादृशोऽपि सन् । आदेश इव तस्याभूत् स्थाने रागरसः परः ॥९॥ ततोऽचिन्तयदेताभ्यां नराभ्यामभिलाषिणम् । वृणोमि नरमित्युच्चैरूमिकं दधती मनः ॥१२॥ इति संचिन्त्य संसाधुकन्याकल्पं समाश्रिता । हृदयेनातुरात्यन्तं भावगह्वरवर्तिना ॥९३।। हंपीव पमिनीखण्डे महिषीव महाद्रहे । सस्य सारङ्गबालेव तत्राभूत् सामिलाषिणी ॥९॥ भजनं करशाखानां कुर्वन्ती स्फुटनिस्वनम् । उपविश्य किलोद्विग्ना पुन्नागस्य तलेऽरुदत ॥१५॥ अतिदीन कृतारावां धूसरा वनरेणुना । दृष्ट्वा तां रामरमणी कृपावष्टब्धमानसा ॥९६॥ उत्थाान्तिकमागत्य करामर्शनतत्परा । मा भैपीरिति भाषित्वा गृहीत्वा पाणिपल्लवे ॥९॥ किंचित् किल अपामाजं मलिनांशुकधारिणीम् । सान्त्वयन्ती शुभैक्यैि रमणान्तिकमानयत् ॥१८॥ ततः पद्मो जगादेतां का त्वं श्वापदसेविते । एकाकिनी वने कन्ये चरसीहातिदुखिता ॥१९॥ ततः संभाषणं प्राप्य स्फुटं तामरसेक्षणा । जगाद भ्रमरौघस्य वाचानुकृतिमेतया ॥१०॥ पुरुषोत्तम मे माता निःसंज्ञायां मृतिं गता। तद्भवेन च शोकेन तातोऽपि विनिपातितः ।।१०१॥ साहं पूर्वकृतात् पापाद् बन्धुभिः परिवर्जिता । प्रविष्टा दण्डकारण्यं वैराग्यं दधती परम् ॥१०२॥ पश्य पापस्य माहात्म्यं यद्वाञ्छन्त्यपि पञ्चताम् । अरण्येऽस्मिन् महाभीमे ग्यालैरपि विवर्जिता ॥१०३॥
तदनन्तर क्षण एकमें शोक छोड़कर वह उठी। उसके अश्रुओंकी धारा नष्ट हो गयी और तीन क्रोध धारण करनेसे उसका मुख दमकने लगा ॥८९॥ वह मार्गके समीपमें ही स्थित उस स्थानार इच्छानुसार इधर-उधर घूमने लगी। उसी समय उसने चित्तको बाँधनेवाले दोनों तरुण-राम-लक्ष्मणको देखा ॥९०। उन्हें देखते ही उसका वैसा तीव्र क्रोध नष्ट हो गया और आदेशके समान उसके स्थानपर परम रागरूपी रस आ जमा ॥९॥ इसके बाद उसने ऐसा विचार किया कि इन दोनों पुरुषोंमें-से मैं अपने इच्छुक पुरुषको वरूँगी इस प्रकार उसके मनमें ऊँची तरंगें उठने लगीं ।।९२॥ ऐसा विचार कर वह कन्याभावको प्राप्त हुई। वह उस समय भावरूपी गुफामें वर्तमान हृदयसे अत्यन्त आतुर हो रही थी ॥२३॥ जिस प्रकार हंसी कमलिनीके झुण्डमें, महिषी (भैंस) महासरोवरमें और हरिणी धान्यमें अभिलाषासे युक्त होती है उसी प्रकार वह भी राम-लक्ष्मणमें अभिलाषासे युक्त हो गयी ॥९४॥ वह हाथको अंगुलियाँ चटखाती हुई भय. भीत मुद्रामें पुन्नाग वृक्षके नीचे बैठकर रोने लगी ॥९५॥ जो अत्यन्त दीन शब्द कर रही थी, तथा वनकी धूलिसे धूसरित थी ऐसी उस कन्याको देख सीताका हृदय दयासे द्रवीभूत हो गया ॥९६।। वह उठकर उसके पास गयी तथा शरीरपर हाथ फेरने लगी। तदनन्तर 'डरो मत' यह कहकर उसका हाथ पकड़कर पतिके पास ले आयी। उस समय वह कुछ-कुछ लज्जित हो रही थी, तथा मलिन वस्त्रको धारण किये हई थी। सीता उसे शभ वचनोंसे सान्त्वना दे रही थी॥९७-९८॥
तदनन्तर रामने उससे कहा कि हे कन्ये! जंगली जानवरोंसे भरे इस वनमें अतिशय दुःखसे युक्त तू कौन अकेली विचरण कर रही है ? ।।९९।। तदनन्तर सम्भाषण प्राप्त कर जिसके नेत्र कमलके समान खिल रहे थे ऐसी वह कन्या भ्रमरसमूहका अनुकरण करनेवाली वाणीसे बोली ॥१००। कि हे पुरुषोत्तम ! मूर्छा आनेपर मेरी माता मर गयी और उसके उत्पन्न शोकसे पिता भी मर गये ॥१०१।। इस तरह पूर्वोपार्जित पापके कारण बन्धुजनोंसे रहित हो परम वैराग्यको धारण करती हुई मैं इस दण्डकवनमें प्रविष्ट हुई थी॥१०२।। पापका माहात्म्य तो देखो कि १. मच्छायस्फुरितानना (?) म. । २. यथा व्याकरणे कस्यचित् स्थाने कश्चित् आदेशो भवति तद्वत् । ३. सीता।
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