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त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व
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अथान्ते तस्य निखिशं विस्फुरत्करमण्डलम् । सकीचकवनं येन प्रदीप्तमिव लक्ष्यते ॥६॥ नष्टशस्तमादाय लक्ष्मीमाात विस्मयः । जिज्ञासंस्तीक्षातामस्य तं वेणुस्तम्नच्छितत् ॥६॥ गृहीतलाय दृष्टा तं सर्वास्तत्र देवताः । अस्माकं स्वाम्यसीत्युक्त्वा सनमस्यमपूजयन् ॥६२॥ अथायोचत सोशः किंचिदम्राकुलेक्षणः । सौमित्रिश्चिरयत्यद्य व नु यातो भविष्यति ॥३३॥ मद्रोत्तिष्ठ जटायुः खं दूरमत्पत्य सद्भुतम् । लक्ष्मीधरकुमारस्य निपुणान्वेषणं कुरु ॥६४॥ इत्युक्तः 'करुणं यावत् करोत्युत्पतितुं खगः । अङ्गुली तावदायस्य जनकस्याङ्गजावदन ॥६५॥ अयं कुङ्कमपङ्कन किस्ताको नाथ लक्ष्मणः । चित्रमाल्याम्बरधरः समायाति स्वलंकृ॥६६॥ गृहीतश्चायमेतेन मण्डलायो महाप्रभः । राजतेऽत्यन्तमेतेन शैलः केसरिणा यथा ॥६॥ दृष्ट्वा तमीदर्श रामो विस्मयव्यावसानपः । असहः प्रमदं रोधुमुत्थाय परिषस्वजे । ६८॥ पृष्टश्च लक्ष्मणः कृत्स्नं स्ववृत्तान्तमवेदयत् । स्थिताश्च ते विचित्राभिः संकथाभिर्यथासुखम् ॥६॥ दृष्टा प्रतिदिनं खडगं सुतं च नियमस्थितम् । यायासीत् सा दिने तस्मिन् कैसेयवागतकका ॥७॥ अपश्यञ्च विसाराणां वनं कृत्तमशेषतः । अचिन्तयच्च यातः व पुत्रः स्थित्वाटवीमिमाम् ॥७॥ स्थितञ्च यत्र संसिद्धमसिरत्नमिदं वनम् । छिन्दानेन परीक्षार्थ न युक्तं सुनुना कृतम् ॥७२॥
तावच्चास्तस्थितादित्यमण्डलप्रतिमं शिरः । सत्कुण्डलं कबन्धं च ददर्श स्थाणुमध्यगम् ॥३॥ देखनेके लिए ही मानो ऊँचा उठा हुआ था ॥५९।।
अथानन्तर उस बाँसोंके स्तम्बमें देदीप्यमान किरणोंके समूहसे सुशोभित एक खड्ग दिखाई दिया जिससे बाँसोंके साथ-साथ समस्त वन प्रज्वलित-सा जान पडता था॥६०॥ आश्च लक्ष्मणने निःशंक हो वह खड्ग ले लिया और उसकी तीक्ष्णताको परख करनेके लिए उसी वंशस्तम्बको उन्होंने काट डाला ॥६१॥ खड्गधारी लक्ष्मणको देखकर वहाँ सब देवताओंने 'आप हमारे स्वामी हो' यह कहकर नमस्कारके साथ-साथ उनकी पूजा की ॥६२॥
__अथानन्तर जिनके नेत्र कुछ-कुछ आँसुओंसे भर रहे थे ऐसे रामने यह कहा कि आज लक्ष्मण बड़ी देर कर रहा है कहाँ गया होगा? ॥६३।। हे भद्र जटायु ! उठो और शीघ्र ही आकाशमें दूर तक उड़कर लक्ष्मणकुमारकी अच्छी तरह खोज करो ॥६४।। इस प्रकार रामके करुणापूर्वक कहनेपर जटायु उड़नेको तैयारी करता है कि इतनेमें सीता अंगुली ऊपर उठाकर कहती है ॥६५॥ कि जिनका शरीर केशरकी पंकसे लिप्त है, जो नाना प्रकारकी मालाओं और वनोंको धारण कर रहे हैं तथा जो अलंकारोंसे अलंकृत हैं ऐसे लक्ष्मण यह आ रहे हैं ॥६६॥ इन्होंने यह महादेदीप्यमान खड्ग ले रखा है और इससे ये सिंहसे पर्वतके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं ॥६७|| लक्ष्मणको वैसा देख रामका मन आश्चयंसे व्याप्त हो गया तथा वे हर्षको रोकने के लिए असमर्थ हो गये जिससे उन्होंने उठकर उनका आलिंगन किया ॥६८॥ पूछनेपर लक्ष्मणने अपना सब वृत्तान्त बतलाया। इस तरह राम-लक्ष्मण और सीता-तीनों प्राणी नाना प्रकारकी कथाएँ करते हुए सुखसे वहाँ ठहरे ॥६९||
अथानन्तर जो चन्द्रनखा प्रतिदिन खड्गको तथा नियममें स्थित पुत्रको देख जातो थी उस दिन वह अकेली ही वहाँ आयी ॥७०॥ आते ही उसने बाँसोंके उस समस्त वनको सब ओरसे कटा देखा। वह विचार करने लगी कि पुत्र इस अटवीमें रहकर अब कहाँ चला गया ? ||७१॥ जिस वनमें यह रहा तथा जहाँ यह खड्ग रत्न सिद्ध हुआ परीक्षाके लिए उसी वनको काटते हुए पुत्रने अच्छा नहीं किया ॥७२॥ इतनेमें ही उसने अस्ताचलपर स्थित सूर्यमण्डलके समान निष्प्रभ, तथा कुण्डलोंसे युक्त शिर और एक दूंठके बीच पड़ा हुआ पुत्रका धड़ देखा ॥७३।। १. करणं म. । २. तावत् अङ्गली आयस्य उत्थानखेदेन युक्तां कृत्वा । ३. वंशानाम् । ४. छिनम् ।
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