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पद्मपुराणे गुरुभिर्वार्यमाणोऽपि मृत्युपाशावलोकितः । शम्बूकः सूर्यहासाथ प्राविशद्भीषणं वनम् ॥४५॥ यथोक्तमाचरन् राजन्नाराधयितुमुद्यतः । एकान्नभुग्विशुद्धारमा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥४६॥ अससाप्तोपयोगस्य यो मे दष्टिपथे स्थितः । वध्योऽसाविति भाषित्वा वंशस्थलमपाविशत् ॥४७॥ दण्डकारण्यभागान्तं तां च क्रौंचरवां नदीम् । सागरस्योत्तरं तीरं संसृत्यासाववस्थितः ॥४८॥ नीत्वा द्वादशवर्षाणि ततोऽसावसिरुद्गतः । ग्राह्यः सप्तदिनं स्थित्वा हन्यारसाधकमन्यथा ॥४९॥ कैकसेयी' सुतस्नेहाद्दष्टुमागात् क्षणे क्षणे । अपश्यञ्चासिमुदभूतं काले देवैरधिष्ठितम् ॥५०॥ प्रसन्नवदना भर्तर्निजगाद यथाविधि । शम्बूकस्य महाराज सिद्धं तद्योगकारणम् ॥५॥ आगमिष्यति मे पुत्रो मेरुं कृत्वा प्रदक्षिणम् । अहोभिस्त्रिभिरद्यापि नियमो न समाप्यते ॥५२॥ एवं मनोरथं सिद्धं दध्यौ चन्द्रनखा सदा । लक्ष्मणश्च तमुदेशं संप्राप्तः पर्यटन वने ॥५३॥ सहस्रामरपूज्यस्य सद्गन्धस्य स्वभावतः । अनन्तस्यादिहीनस्य खड्गरत्नस्य तस्य सः ॥५४॥ दिव्यगन्धानुलिप्तस्य दिव्यस्रग्भूषितस्य च । गन्धो भास्करहासस्य लक्ष्मीधरमुपेयिवान् ॥५५॥ लक्ष्मणो विस्मयं प्राप्तः परित्यज्य क्रियान्तरम् । अयासीद गन्धमार्गेण केसरीव भयोज्झितः ॥५६॥ अपश्यञ्च तरुच्छन्नं प्रदेशमतिदुर्गमम् । लताजालावलीरुद्धं तुङ्गपाषाणवेष्टितम् ॥५७॥ मध्ये च गहनस्यास्य सुसमं धरणीतलम् । विचित्ररत्ननिर्माणमर्चितं कनकाम्बुजैः ॥५८॥ मध्ये तस्यापि विपुलं वंशस्तम्बं समुत्थितम् । सौधर्ममिव संद्रष्टुमविज्ञातकुतूहलम् ॥५९।।
सम्बन्धी रावणसे भी पृथ्वीपर गौरवको प्राप्त हुआ था ॥४४॥ जिसे मृत्युका फन्दा देख रहा था ऐसे शम्बूकने गुरुजनोंके द्वारा रोके जानेपर भी सूर्यहास नामा खड्ग प्राप्त करने के लिए भयंकर वनमें प्रवेश किया ॥४५॥ हे राजन् ! वह यथोक्त आचरण करता हुआ सूर्यहास खड्गको प्राप्त करनेके लिए उद्यत हुआ। वह एक अन्न खाता है, निर्मल आत्माका धारक है, ब्रह्मचारी है और इन्द्रियोंको जीतनेवाला है, ॥४६॥ 'उपयोग पूर्ण हुए बिना जो मेरी दृष्टिके सामने आवेगा वह मेरे द्वारा वध्य होगा' इस प्रकार कहकर वह वंशस्थल पर्वतपर वंशकी एक झाड़ीमें जा बैठा ॥४७।। वह दण्डक वनके अन्त में क्रौंचरवा नदी और समुद्रके उत्तर तटके बीच जो स्थान है वहाँ अवस्थित है ॥४८॥ तदनन्तर बारह वर्ष व्यतीत होनेपर वह सूर्यहास नामा खड्ग प्रकट हुआ जो सात दिन ठहरकर ग्रहण करने योग्य होता है अन्यथा सिद्ध करनेवालेको ही मार डालता ॥४९।। दुनंखा (चन्द्रनखा) पुत्रके स्नेहसे उसे बार-बार देखनेके लिए उस स्थानपर आती रहती थी सो उसने उसी क्षण उत्पन्न उस देवाधिष्ठित सूर्यहास खड्गको देखा ॥५०॥ जिसका मुख प्रसन्नतासे भर रहा था ऐसी दुनखाने अपने पति खरदूषणसे कहा कि हे महाराज ! मेरा पुत्र मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा देकर तीन दिनमें आ जायेगा क्योंकि उसका नियम आज भो समाप्त नहीं हुआ है ॥५१-५२॥ इस प्रकार इधर शम्बूककी माता चन्द्रनखा, सिद्ध हुए मनोरथका सदा ध्यान कर रही थी उधर लक्ष्मण वनमें घूमते हुए उस स्थानपर जा पहुँ वे ॥५३॥ एक हजार देव जिसकी पूजा करते थे, जिसको स्वाभाविक उत्तम गन्ध थी, जिसका न आदि था न अन्त था, जो दिव्यगन्धसे लिप्त था और दिव्यमालाओंसे जो अलंकृत था ऐसे सूर्यहास नामक खड्गरत्नकी गन्ध लक्ष्मण तक पहुँची ।।५४-५५।। आश्चर्यको प्राप्त हुए लक्ष्मण अन्य कार्य छोड़कर जिस मार्गसे गन्ध आ रही थी उसी मार्गसे सिंहके समान निर्भय हो चल पड़े ॥५६॥ वहाँ जाकर उन्होंने वृक्षोंसे आच्छादित, लताओंके समूहसे घिरा तथा ऊँचे-ऊंचे पाषाणोंसे वेष्टित एक अत्यन्त दुर्गम स्थान देखा ।।५७|| इसी वनके बीच में एक समान पृथ्वीतल था जो चित्र-विचित्र रत्नोंसे बना था तथा सुवर्णमय कमलोंसे अचित था ।।५८। उसी समान धरातलके मध्यमें एक बांसों का विस्तृत स्तम्भ ( भिड़ा ) था जो किसी अज्ञात कुतूहलके कारण सौधर्मस्वर्गको १. दुर्नसा, चन्द्रासा । २. वंशस्तं वंशमुत्थितं म. ( ? )।
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