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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
ततः शरदृतुजित्वा शशाङ्ककरपत्रिभिः । घनौयं विश्नुवंश्व के राज्यमाक्रान्तविष्टपः ॥ १ ॥ विकसत्पुष्पसंघातान् पादपान् स्निग्धचेतसः । अलंकारोत्तमांस्तस्य जगृहुः ककुब्रङ्गनाः ||२॥ जीमूतमलनिर्मुक्तं भिन्नाञ्जनसमद्युति । अम्बुनेव चिरं धौतं रराज गगनाङ्गणम् ॥३॥ प्रावृट्कालगजो मेघकलशैर्धरिणीश्रियम् । अभिषिच्य गतः क्वापि विद्युत्कक्षाविराजितः || ४ || चिरात् कमलिनोगेहं प्राप्य पक्षभृतां गणाः । उद्भूतमधुराळापाः कामप्यापुः सुखासिकाम् ||५|| सिन्धवः स्वच्छकीलाला उन्मज्जत्पुलिनाः पराम् । कान्तिमीयुः समासाद्य शरत्समयकामुकम् ॥ ६ ॥ वर्षावातविमुक्तानि चिरात्प्राप्य सुखासिकाम् । काननानि व्यराजन्त संगतानीव निद्रया ॥ ७ ॥ सरांसि पङ्कजाढ्यानि समं रोधस्समुत्थितैः । पादपैः पक्षिनादेन समालापमिवाभजन् ||८|| नानापुष्पकृतामोदा रजनीविमलाम्बरा । मृगाङ्कतिलकं भेजे सुकालेशमिवोषती ||९|| केतकीसूतिरजसा पाण्डुरीकृतविग्रहः । ववौ समीरणो मन्दं मदयन् कामिनीजनम् ||१०| इति प्रसन्नतां प्राप्तेकाले सोत्साहविष्टपे । मृगेन्द्रगतिराश्लिष्टविक्रमैकमहारसः ||११|| लब्ध्वानुमननं ज्येष्ठादाशा निहितवोक्षणः । कदाचिल्लक्ष्मणो भ्राम्यन्नेककस्तद्वनान्तिकम् ॥ १२ ॥ अजिघ्रदामरं गन्धं विनीतपवनाहृतम् । अचिन्तयच्च कस्यैष भवेद्गन्धो मनोहरः ॥ १३ ॥
अथानन्तर उज्ज्वल शरद् ऋतु, चन्द्रमाकी किरणरूपी बाणोंके द्वारा मेघसमूहको जीतकर समस्त विश्वमें व्याप्त होती हुई राज्य करने लगी ॥१॥ जिनका चित्त स्नेहसे भर रहा था ऐसी दिशारूपी स्त्रियोंने उस शरद् ऋतुके स्वागतके लिए ही मानो खिले हुए पुष्पसमूहसे सुशोभित वृक्षरूपी उत्तमोत्तम अलंकार धारण किये थे ||२|| मेघरूपी मलसे रहित आकाशरूपी आंगन, मदित अंजनके समान श्यामवणं हो ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बहुत देर तक पानीसे धुल जानेके कारण ही स्वच्छ हो गया है || ३|| वर्षा कालरूप हाथी, मेघरूपी कलशोंके द्वारा पृथिवीरूपी लक्ष्मीका अभिषेक कर बिजलीरूपी कक्षाओं में सुशोभित होता हुआ जान पड़ता है कहीं चला गया था ॥४॥ भ्रमरोंके समूह बहुत समय बाद कमलिनीके घर जाकर मधुरालाप करते हुए सुख से बैठे थे ||५|| जिनके पुलिन धीरे-धीरे उन्मग्न हो रहे हैं ऐसी स्वच्छ जलसे भरी नदियाँ शरत्कालरूपी वल्लभको पाकर परम कान्तिको प्राप्त हो रहीं थीं || ६ || वर्षा कालकी तीक्ष्ण वायुसे रहित वन चिरकाल बाद सुखसे बैठकर ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो निद्रासे संगत ही थेनींद ही ले रहे थे ||७|| कमलोंसे युक्त सरोवर तटोंपर उत्पन्न हुए वृक्षोंके साथ पक्षियोंके शब्द के बहाने मानो वार्तालाप ही कर रहे थे ॥ ८॥ जिसने नाना प्रकारके फूलोंकी सुगन्धि धारण की थी तथा जो आकाशरूपी स्वच्छ वस्त्रसे सुशोभित थी ऐसी रात्रिरूपी स्त्री उत्तमकालरूपी पतिको पाकर मानो चन्द्रमारूपी तिलकको धारण कर रही थी || ९ || केतकी के फूलोंसे उत्पन्न परागके द्वारा शरीर शुक्लवर्ण हो रहा था ऐसी वायु कामिनीजनोंको उन्मत्त करती हुई धीरे-धीरे बह रही थी || १० || इस प्रकार जिसमें समस्त संसार उत्साह से युक्त था ऐसे उस शरत्कालके प्रसन्नताको प्राप्त होनेपर सिंहके समान निर्भय विचरनेवाले महापराक्रमी लक्ष्मण बड़े भाई रामसे आज्ञा प्राप्त दिशाओं की ओर दृष्टि डालते हुए किसी समय अकेले ही उस दण्डक वनके समीप घूम रहे थे ||११-१२॥ उसी समय उन्होंने विनयो पवनके द्वारा लायो हुई दिव्य सुगन्धि सूँघो । उसे सूंघते ही वे विचार करने लगे कि यह मनोहर गन्ध किसकी होनी चाहिए ? ||१३|| १. विशदं चक्रे म. । २. भ्रमराणाम् । ३. निर्मलजलयुक्ताः । ४. रोघसमुत्थितैः । ५. लब्धानुगमनं म. ।
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