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द्विचत्वारिंशत्तम पर्व
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बजानय जनन्यौ नौ त्वरितं न न नाथवा । तिष्ठ सुन्दर नैवं मे मानसं शुद्धिमश्नुते ॥१२॥ स्वयमेव गमिष्यामि शरत्समयसंगमे । प्रतिजामद्भवान् सीतामिह स्थास्यति यत्नवान् ॥१३॥ ततो लक्ष्मीधरे नने प्रस्थितेऽवस्थिते तथा । प्रेमार्दीकृतचेतस्कः पुनः पद्मो जगाविति ॥१४॥ समयेऽस्मिन्नतिक्रान्ते दीप्तभास्करदारुणे । प्राप्तोऽत्यन्तमयं मीमः कालः संप्रति जालदः ॥१५॥ क्षुब्धाकूपारनिर्घोषाश्चलाञ्जननगोपमाः । दिशोऽन्धकारयन्त्येते विद्युद्वन्तो बलाहकाः ॥९६।। निरन्तरं तिरोधाप गगनं घनविग्रहाः। मुञ्चन्ति कं यथा देवा रत्नराशिं जिनोद्भवे ॥१७॥
उपजातिवृत्तम् विधाय तुङ्गानचलान् महान्तो धाराभिरुच्चैर्ध्वनयः पयोदाः । नमोङ्गणेऽमी निभृतं चरन्तः क्षणप्रेमासंगमिनो विभान्ति ॥१८॥
वंशस्थवृत्तम् पयोमुचः केचिदमी विपाण्डुराः समीरिता वेगवता नभस्वता ।
भ्रमन्ति निष्णातमसंयतात्मनां मनोविशेषा इव यौवनश्रिताः ॥९९।। अयं सस्यभुवं मुक्त्वा मेघो भूभृति वर्षति । अनिश्चितविशेषः सन कुपात्रे द्रविणी यथा ॥१०॥
___ मालिनीवृत्तम् अतिजवमिह काले सिन्धवः संप्रवृत्ता विषमतमविहारोदारपङ्का धरित्री । जलपरिमलशीतो वाति चण्डश्च वायुनं तव गमनयुक्तं तेन मन्ये सुभाव ॥१०॥
अथवा नहीं-नहीं ठहरो, यह ठीक नहीं है इसमें मेरा मन शुद्धताको प्राप्त नहीं हो रहा है ॥९१-९२।। ऋतु आनेपर मैं स्वयं जाऊँगा, तुम सीताके प्रति सावधान रहकर यत्न सहित यहीं ठहरना ॥९३॥ तदनन्तर रामकी पहली बात सुनकर लक्ष्मण बड़ी नम्रतासे जाने लगे थे पर दूसरी बात सुनकर रुक गये। उसी समय जिनका चित्त प्रेमसे आर्द्र हो रहा था ऐसे रामने पुनः कहा कि देदीप्यमान सूर्यसे दारुण यह ग्रीष्म काल तो व्यतीत हुआ अब यह अत्यन्त भयंकर वर्षा काल उपस्थित हुआ है ॥९४-९५॥ जो क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रके समान गर्जना कर रहे हैं तथा जो चलते-फिरते अंजनगिरिके समान जान पड़ते हैं ऐसे बिजलीसे युक्त ये मेघ दिशाओंको अन्धकारसे युक्त कर रहे हैं ।।९६॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के जन्मके समय देव रत्नराशिकी वर्षा करते हैं, उसी प्रकार मेघोंका शरीर धारण करनेवाले देव निरन्तर रूपसे आकाशको आच्छादित कर जल छोड़ रहे हैं-पानी बरसा रहे हैं ॥९७॥ जो स्वयं महान् हैं, अत्यधिक गर्जना करनेवाले हैं, जो अपनी मोटो धाराओंसे पर्वतोंको और भी अधिक उन्नत कर रहे हैं, जो आकाशांगण में निरन्तर विचरण कर रहे हैं तथा जिनमें बिजली चमक रही है ऐसे ये मेघ अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं ।।९८|| वेगशालो वायुके द्वारा प्रेरित ये कितने ही सफेद मेघ असंयमी मनुष्योंके तरुण हृदयोंके समान इधर-उधर घूम रहे हैं ॥१९॥ जिस प्रकार विशेषताका निश्चय नहीं करनेवाला धनाढ्य मनुष्य कुपात्रके लिए धन देता है उस प्रकार यह मेघ धान्यकी भूमि छोड़कर पर्वतपर पानी बरसा रहा है ।।१००। इस समय बड़े वेगसे नदियां बहने लगी हैं, अत्यधिक कीचड़से युक्त हो जानेके कारण पृथिवीपर विहार करना दुर्भर हो गया है और जलके सम्बन्धसे शीतल तीक्ष्ण वायु चलने लगी है इसलिए हे भद्र ! तुम्हारा जाना ठीक नहीं है ।।१०१॥
१. जलदानामयं जालदः मेघसंवन्धो । २. विद्युत् ।
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