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पद्मपुराणे
पुष्पिताग्रावृत्तम् अतिमधुररवं कराभिघातैर्मरुजरवादपि सुन्दरं विचित्रम् । अनुगतदयितो रघुप्रधानः सलिलमवादयदन्वितं सुगीत्या ।।८।।
परितोऽकरोभ्रमणमस्य जलरमणसक्तचेतसोदारचतुरकरणेऽनुगतक्रियस्य 'हलहेतेर्लक्ष्मणः । अतिवेगवान् पुनरपेतजवनिपुणचारतत्परो भ्रातृगुणनिरतधीः परमं समुद्ररवचापलक्षितः ॥८३॥
मालिनीवत्तम इति सविमललीलः स्वेच्छयाम्भोविहारं प्रमदमुपनयन्तं तीरभाजां मृगाणाम् । रघुपतिरनुभूय भ्रातृदारानुयातो गजपतिरिव तीरं सेवितुं संप्रवृत्तः ॥८४॥
वंशस्थवृत्तम् शरीरयातं च विधाय वर्तनं महाप्रशस्तैर्वनजन्मवस्तुभिः ।
स्थिता लतामण्डपरुद्धभास्करे सुरा इवामी कृतचित्रसंकथाः ॥८५॥ सीतापतिस्ततोऽवोचदिति विश्रब्धमानसः। जटायुर्मूर्धकरया सीतयाऽलंकृतान्तिकः ॥८६॥ सन्त्यस्मिन् विविधा भ्रातद्रुमाः स्वादुफलान्विताः । सरितः स्वच्छतोयाश्च मण्डपाश्च लतात्मकाः ॥८७॥ अनेकरत्नमंपूर्णो दण्डकोऽयं महागिरिः । प्रदेशैर्विविधैर्युक्तः परक्रीडनकोचितैः ।।८।। उपकण्ठेऽस्य नगरं विदध्मः सुमनोहरम् । नैजिकीर्वनसंभूता गृहीमो महिषीस्तथा ॥८९॥ अस्मिन्नगोचरेऽन्येषामरण्येऽत्यन्तसुन्दरे । विषयावासनं कुर्मः परमा तिरत्र मे ॥१०॥
स्वस्मिन्निहितचेतस्के नूनं शोकवशीकृते । स्वहितैः स्वजनैः सर्वैः परिवर्गसमन्वितैः ॥११॥ लगे, सो ठीक ही है क्योंकि ये तिर्यंच भी कोमल चित्तके धारक मनुष्योंकी मनोहर चेष्टाको समझते हैं-जानते हैं ।।८०-८१।। तदनन्तर रामने सीताके साथ-साथ उत्तम गीत गाते हुए हथेलियोंके आघातसे जलका बाजा बजाया । उस जलवाद्यका शब्द मृदंगके शब्दसे भी अधिक मधुर, सुन्दर और विचित्र था ।।८२॥ उस समय रामका चित्त जलक्रीड़ामें आसक्त था तथा वे स्वयं नाना प्रकारकी उत्तम चतुर चेष्टाओंके करनेमें तत्पर थे। भाईके स्नेहसे भरे एवं समुद्रघोष धनुषसे सहित लक्ष्मण उनके चारों ओर चक्कर लगा रहे थे। यद्यपि लक्ष्मण अत्यन्त वेगसे युक्त थे तो भी उस समय वेगको दूर कर सुन्दर चालके चलने में तत्पर थे ।।८३॥ इस प्रकार उज्ज्वल लीलाको धारण करनेवाले राम भाई और स्त्रीके साथ, तटपर स्थित मगोंको हर्ष उपजानेवाली जलक्रीड़ा इच्छानुसार कर गजराजके समान किनारेपर आनेके लिए उद्यत हुए ॥८४।। स्नानके बाद वनमें उत्पन्न हुई अतिशय श्रेष्ठ वस्तुओंके द्वारा शरीरवृत्ति अर्थात् भोजन कर वे अनेक प्रकारकी कथाएँ करते हुए जहाँ लताओंके मण्डपसे सूर्यका संचार रुक गया था ऐसे दण्डक वनमें देवोंके समान आनन्दसे बैठ गये ।।८५॥ तदनन्तर जटायुके मस्तकपर हाथ रखे हुई सीता जिनके पास बैठी थी ऐसे राम निश्चिन्त चित्त हो इस प्रकार बोले ॥८६|| कि हे भाई! यहाँ स्वादिष्ट फलोंसे युक्त नाना प्रकारके वृक्ष हैं, स्वच्छ जलसे भरी नदियाँ हैं और लताओंसे निर्मित नाना मण्डप हैं ।।८७।। यह दण्डक नामका महापर्वत अनेक रत्नोंसे परिपूर्ण तथा उत्तम क्रीड़ाके योग्य नाना प्रदेशोंसे युक्त है ॥८॥ हम लोग इस पर्वतके समीप अत्यन्त मनोहर नगर बनायें और वनमें उत्पन्न हुई पोषण करनेवाली अनेक भैंसें रख लें ॥८९॥ जहाँ दूसरोंका आना कठिन है ऐसे इस अत्यन्त सुन्दर वनमें हम लोग देश बसायें क्योंकि यहाँ मुझे बड़ा सन्तोष हो रहा है ॥१०॥ जिनका चित्त हम लोगोंमें लग रहा है और जो निरन्तर शोकके वशीभूत रहती हैं ऐसी अपनी माताओंको, अपना हित करनेवाले समस्त परिकर एवं परिवारके साथ, जाओ शीघ्र ही ले आओ १. रामस्य । २. अस्मिन म.। ३. सहितः म.।
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