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द्विचत्वारिंशत्तमं पथं
ततः सौमनसाकारं वनं तद्वीक्ष्य राघवः । जगाद विकचाम्भोजलोचनां जनकात्मजाम् ||३३|| वल्लीभिर्गुल्मकैः स्तम्बैः समासन्नैरमी नगाः । सकुटुम्बा इवाभान्ति प्रिये यच्छात्र लोचने ॥३४॥ प्रियङ्गुलतिकां पश्य संगतां वकुलोरसि । कान्तस्येव वरारोहा शङ्के निर्भरसौहृदम् ॥ ३५॥ चलता पल्लवेनेयं संप्रत्यग्रेण माधवी । परामृशति सौहार्दादिव चूतमनुत्तरात् ||३६||
छन्द (?)
अयं मदालसे क्षणः करी करेणुचोदितः । मधुकर विघटितदलनिचयः प्रविशति सीते कमलवनम् ||३७|
उपजातिः
वहन्नसौ दर्पमुदारमुच्चैर्वल्मीकशृङ्गं गवलीसुनीलः ।
लीलान्वितो वज्रसमेन धीरं भिन्ते विषाणेन लसत्खुराग्रः ||३८|| आर्याच्छन्दः
अमुमिन्द्रनीलवर्णं विवरान्नियतिदूरतनुभागम् । पश्य मयूरं दृष्ट्वा प्रविशन्तमहिं भयाकुलितम् ॥३९॥ शार्दूलविक्रीडितम्
पश्यामुष्य महानुभावचरितं सिंहस्य सिंहेक्षणे
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रम्येऽस्मिन्नचले गुहामुखगतस्याराद्विका सिद्युते । यः श्रुत्वा रथनादमुन्नतमना निद्रां विहाय क्षणं
वीक्ष्यापाङ्गदृशा विजृम्भ्य शनकैर्भूयस्तथैव स्थितः ॥४०॥
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जान पड़ता था मानो बड़े आदरसे राम आदिको नमस्कार ही कर रहा हो और सुगन्धित वायुसे ऐसा सुशोभित होता था मानो आनन्दके श्वासोच्छ्वास ही छोड़ रहा हो ||३२||
तदनन्तर सौमनस वनके समान सुन्दर वनको देख-देखकर रामने विकसित कमल के समान खिले हुए नेत्रोंको धारण करनेवाली सीतासे कहा कि हे प्रिये ! इधर देखो, ये वृक्ष लताओं तथा निकटवर्ती गुल्मों और झाड़ियोंसे ऐसे जान पड़ते हैं मानो कुटुम्ब सहित ही हों ||३३-३४॥ वकुल वृक्षके वक्षस्थलसे लिपटी हुई इस प्रियंगु लताको देखो। यह ऐसी जान पड़ती है मानो पतिके वक्षःस्थलसे लिपटी प्रेम भरी सुन्दरी ही हो ||३५|| यह माधवीलता हिलते हुए पल्लवसे मानो सौहार्द के कारण ही आमका स्पर्श कर रही है ||३६|| हे सीते ! जिसके नेत्र मदसे आलस हैं, हस्तिनी जिसे प्रेरणा दे रही है और जिसने कलिकाओंके समूहको भ्रमरोंसे रहित कर दिया है ऐसा यह हाथी कमल वनमें प्रवेश कर रहा है ||३७|| जो अत्यधिक गर्वको धारण कर रहा है, जो लीला सहित है, तथा जिसके खुरोंके अग्रभाग सुशोभित हैं ऐसा यह अत्यन्त नील भैंसा वज्रके समान सींगके द्वारा वामीके उच्च शिखरको भेद रहा है ||३८|| इधर देखो, इस साँपके शरीरका बहुत कुछ भाग बिल से बाहर निकल आया था फिर भी यह सामने इन्द्रनील मणिके समान नीलवर्णवाले मयूरको देखकर भयभीत हो फिरसे उसी बिल में प्रवेश कर रहा है ||३९|| हे सिंहके समान नेत्रोंको धारण करनेवाली तथा फैलती हुई कान्तिसे युक्त प्रिये ! इस मनोहर पर्वतपर गुहा अग्रभागमें स्थित सिंहकी उदात्त चेष्टाको देखो जो इतना दृढ चित्त है कि रथका शब्द सुनकर क्षण भरके लिए निद्रा छोड़ता है और कटाक्षसे उसकी ओर देखकर तथा धीरेसे जमुहाई
१. मदालसे क्षीणः म. । २. महिषः । ३. भिन्ने म । ४. यच्छ्रुत्वा म. ।
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