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द्विचत्वारिंशत्तम पर्व
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स्रक्च्छन्दः क्वचिदिदमतिघनवरनगकलितं क्वचिदणुबहविधतृणपरिनिचितम् । क्वचिदपगतमयमृगपुरुपटलं क्वचिदतिमययुतरुरुदितगहनम् ॥४७॥
चण्डीच्छन्दः क्वचिद्रुमदगनपातितवृक्षं क्वचिदभिनवतरुजालकयुक्तम् । घाचिदलि कुरकलशंकृतरम्यं क्वचिदतिखररवसंभृतकक्षम् ॥४८॥
प्रमाणिकावृत्तम् कविहिसान्तसत्त्वकं वचिद्धिधब्धसत्वकम् । क्वचिन्निरम्वुगह्वरं क्वचिद्विस्रस्तगह्वरम् ॥४९॥
___ तोटकच्छन्दः अरुणं धवलं कपिलं हारतं बलितं निभृतं सरवं विरवम् ।
विरलं गहनं सुभगं विरसं, तरुणं पृथुकं विषमं सुसमम् ॥५०॥ इदं तद्दण्डकारण्यं प्रसिद्धं दयिते वनम् । पश्यानेकविधं कर्मप्रपञ्चमिव जानकि ॥५१॥ नगोऽयं दण्डको नाम शृङ्गालीढाम्बराङ्गणः । सुवक्त्रे यस्य नाम्नेदं दण्डकारण्यमुच्यते ॥५२॥ तुझ्या शिखरेश्वस्य प्रभया धातुजन्मना । रक्तया पुष्पपद्येव प्रावृतं माति पुष्करम् ॥५३॥ अस्य गह्वरदेशेषु पश्यौषधिमहाशिखाः । निर्वातस्थप्रदीपामा दूरध्वस्ततमश्चयाः ॥५४॥
शालिनीच्छन्दः अस्मिन्नुच्चैर्निर्झराः संपतन्तस्तारारावा प्रावसङ्घातसक्ताः। मुक्काकारान् सीकरानुत्सृजन्तो राजन्त्येते स्पष्टमासानुकाराः ॥५५॥
हो रहा है ॥४६॥ कहीं तो यह वन उत्तमोत्तम सघन वृक्षोंसे युक्त है, कहीं छोटे-छोटे अनेक प्रकारके तृगोंसे व्याप्त है, कहों निर्भय मृगोंके बड़े-बड़े झुण्डोंसे सहित है, कहीं अत्यन्त भयभीत कृष्णमृगोंके लिए सघन झाड़ियोंसे युक्त है ॥४७॥ कहीं अतिशय मदोन्मत्त हाथियोंके द्वारा गिराये हुए वृक्षोंसे सहित है, कहीं नवीन वृक्षोंके समूहसे युक्त है, कहीं भ्रमर-समूहकी मनोहारी झंकारसे सुन्दर है, कहीं अत्यन्त तीक्ष्ण शब्दोंसे भरा हुआ है ॥४८॥ कहीं प्राणी भयसे इधर-उधर घूम रहे हैं, कहीं निश्चिन्त बैठे हैं, कहीं गुफाएं जलसे रहित हैं, कहीं गुफाओंसे जल बह रहा है ॥४९॥ कहीं यह वन लाल है, कहीं सफेद है, कहीं पीला है, कहीं हरा है, कहीं मोड़ लिये हुए है, कहीं निश्चल है, कहीं शब्दसहित है, कहीं शब्दरहित है, कहीं विरल है, कहीं सघन है, कहीं नीरस-शुष्क है, कहीं तरुण-हराभरा है, कहीं विशाल है, कहीं विषम है, और कहीं अत्यन्त सम है ॥५०॥ हे प्रिये जानकि ! देखो यह प्रसिद्ध दण्डकवन कर्मों के प्रपंचके समान अनेक प्रकारका हो रहा है ।।५१।। हे सुमुखि ! शिखरोंके समूहसे आकाशरूपी आँगनको व्याप्त करनेवाला यह दण्डक नामका पर्वत है जिसके नामसे ही यह वन दण्डक वन कहलाता है ॥५२॥ इस पर्वतके शिखरपर गेरू आदि आदि धातुओंसे उत्पन्न हो ऊँची उठनेवाली लाल-लाल कान्तिसे आच्छादित हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता है मानो लाल फूलोंके समूहसे ही व्याप्त हो रहा हो ॥५३॥ इधर इस पर्वतकी गुफाओंमें दूरसे ही अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाली देदीप्यमान औषधियोंकी बड़ी-बड़ी शिखाएँ वायुरहित स्थानमें स्थित दीपकोंके समान जान पड़ती हैं ॥५४॥ इधर पाषाण-खण्डोंके बीच अत्यधिक शब्दके साथ बहुत ऊँचेसे पड़नेवाले ये झरने मोतियोंके समान जलकणोंको छोड़ते हुए सूर्यको किरणोंके
१. पर्वतः । २. शृङ्गरालीढमम्बराङ्गणं येन सः । ३. शिखरध्वस्य म.।
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