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पद्मपुराणे
विद्युन्मालावृत्तम्
अस्योद्देशाः शुभ्राः केचित् केचिन्नीला रक्ताः केचित् । दृश्यन्तेऽमी वृक्षैर्व्याप्ता प्रान्ते कान्तेऽत्यन्तं कान्ताः ॥५६॥
प्रमाणिकाछन्दः
अमी समीरणेरिते वरोष्ठि वृक्षमस्तके | विभान्ति गहरे लवा रवेः कराः क्वचित् क्वचित् ॥ ५७॥
रुचिरावृत्तम्
अयं क्वचित् फलभरनम्रपादपः क्वचित् स्थितैः कुसुमपटैरलंकृतः ।
क्वचित् खगैः कलरवकारिभिश्चितो विभात्यलं वरमुखि दण्डको गिरिः ॥५८॥ कोकिलकच्छन्दः
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इह चमरीगणोऽयमतिदुष्टमृगोपगतः प्रियतरवालिधिः प्रियतमैरनुयातपथः । अन्न्रतिविसृष्टमन्दगतिरिन्दुरुचिः पुरुषं प्रविशति गह्वरं न पृथुकाहितचञ्चलदृक् ॥५९॥
स्रग्धरावृत्तम्
एषा नीला शिला स्यात्तिमिरमुपचितं कन्दराणां मुखेषु
स्यादेतत् किं विहायः स्फटिकमणिशिला किन्नु वृक्षान्तरस्था ।
एष स्याद् गण्डशैलः किमुत गजपतिः सेवते गाढनिद्रां
कान्ते क्षोणीधरेऽस्मिन्नतिसदृशतया दुर्गमा भूविभागाः ॥ ६० ॥ एषा क्रौञ्चरवा नाम नदी जगति विश्रुता । जलं यस्याः प्रिये 'वीधं स्वदीयमिव चेष्टितम् ॥ ६१॥
अश्वललितच्छन्दः
मृदुमरुदीरभङ्गुरमलं तटस्थतरुपुष्पसंहितधरम् । मवशयनीयरूपसुभगं सुकेशि जलमत्र राजतितराम् ॥ ६२॥ साथ मिलकर सुशोभित हो रहे हैं || ५५॥ हे कान्ते ! इस पर्वतके कितने ही प्रदेश सफ़ेद हैं, कितने ही नील हैं, कितने ही लाल हैं, और कितने ही वृक्षावलीसे व्याप्त होकर अत्यन्त सुन्दर दिखाई देने हैं ||५६|| हे वरोष्ठि ! सघनवन में वायुसे हिलते हुए वृक्षोंके अग्रभाग पर कहीं कहीं सूर्य की किरणें ऐसी सुशोभित होती हैं मानो उसके खण्ड ही हों ||५७ || हे सुमुखि ! जो कहीं तो फलोंके भारसे झुके हुए वृक्षोंके समूह से युक्त है; कहीं पड़े हुए पुष्प रूपी वस्त्रोंसे सुशोभित है, और कहीं कलरव करनेवाले पक्षियोंसे व्याप्त है ऐसा यह दण्डक वन अत्यधिक सुशोभित हो रहा है ||५८|| इधर, जिसे अपनी पूँछ अधिक प्यारी है, जिसके वल्लभ पीछे-पीछे दौड़े चले आ रहे हैं, जो चन्द्रमाके समान सफेद कान्तिका धारक है, और जो अपने बच्चोंपर चंचल दृष्टि डाल रहा है ऐसा यह चमरीमृगों का समूह दुष्ट जीवोंके द्वारा उपद्रुत होनेपर भी अपनी मन्दगतिको नहीं छोड़ रहा है तथा बाल टूट जानेके भयसे कठोर एवं सघन झाड़ीमें प्रवेश नहीं कर रहा है ||५९|| हे कान्ते ! इधर इस पर्वतकी गुफाओंके आगे यह क्या नील शिला रखी है ? अथवा अन्धकारका समूह व्याप्त है ? इधर यह वृक्षोंके मध्य में आकाश स्थित है अथवा स्फटिक मणिकी शिला विद्यमान है ? और इधर यह काली चट्टान है या कोई बड़ा हाथी गाढ निद्राका सेवन कर रहा है इस तरह अत्यन्त सादृश्यके कारण इस पर्वत के भूभागों पर चलना कठिन जान पड़ता है || ६०|| हे प्रिये । यह वह क्रौंचरवा नामकी जगत्-प्रसिद्ध नदी है कि जिसका जल तुम्हारी चेष्टाके समान अत्यन्त उज्ज्वल है ॥ ६१ ॥ हे सुकेशि ! जो मन्द मन्द वायुसे प्रेरित होकर लहरा रहा है, जो तटपर स्थित वृक्षोंके पुष्प१. वीध्रं विमलं वोडं म. ।
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