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पद्मपुराणे धर्मस्य पश्यतौदार्य यदस्मिन्नेव जन्मनि । शाकपत्रोपमो गृध्रो जातस्तामरसोपमः ॥१५९॥ पुरा योऽनेकमांसादो दुर्गन्धोऽभूज्जुगुप्सितः । सोऽयं काञ्चनकुम्भाभःसुरमिः सुन्दरोऽभवत् ॥१६॥ कचिद् वह्निशिखाकारः क्वचिद् वैडूर्यसंनिमः । कचिच्चामीकरच्छायो हरिन्मणिरुचिः क्वचित् ।।१६।। रामलक्ष्मणयोरग्रे स्थितोऽसौ बहुचाटुकः । बुभुजे साधु संपन्नमन्नं सीतोपसाधितम् ॥१६॥ चन्दनेन स दिग्धाङ्गो हेमकिङ्किण्यलंकृतः । बिभ्राणः शकुनी रेजे रत्नांशुजटिलं शिरः ॥१६॥ यस्मादंशुजटास्तस्य विरेजू रत्नहेमजाः । जटायुरिति तेनासावाहृतस्तैरतिप्रियः ।।१६४॥ जितहंसगतिं कान्तं चारुविभ्रमभूषितम् । तमन्यपक्षिणो दृष्ट्वा भयवन्तो विसिस्मिथुः ॥१६५॥ त्रिसंध्यं सीतया साकं वन्दनामकरोदसौ। भक्तिप्रबो जिनेन्द्रागां सिद्धानां योगिनां तथा ॥१६६॥ तत्र प्रीति महाप्राप्ता जानकी करुणापरा । अप्रमत्ता सदा रक्षां कुर्वन्ती धर्मवत्सला ।।१६७॥
उपजातिवृत्तम् आस्वादमानो निजयेच्छयासौ फलानि शुद्धान्यमृतोपमानि । जलं प्रशस्तं च पिबन्नरण्ये बभव नित्यं सुविधिः पतत्री ॥१६॥ सतालशब्दं जनकात्मजाया धर्माश्रयोच्चारितगीतिकायाम् ।
कृतानुगोत्यां पतिदेवराभ्यां ननत हृष्टो रविरुग्जटायुः ॥१६९॥ इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते जटायूपाख्यानं नामैकचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४१॥
करता था ॥१५८॥ अहो ! धर्मका माहात्म्य देखो कि जो पक्षी इसी जन्ममें शाकपत्रके समान निष्प्रभ था वही कमलके समान सुन्दर हो गया ॥१५९|| पहले जो अनेक प्रकारके मांसको खानेवाला, दुर्गन्धित एवं घृणाका पात्र था वही अब सुवर्णकलशमें स्थित जलके समान मनोज्ञ एवं सुन्दर हो गया ॥१६०॥ उसका आकार कहीं तो अग्निकी शिखाके समान था, कहीं नीलमणिके सदश था. कहीं स्वर्णके समान कान्तिसे यक्त था और कहीं हरे मणिके तुल्य था ॥१६॥ रामलक्ष्मणके आगे बैठा तथा अनेक प्रकारके मधुर शब्द कहनेवाला वह पक्षी सीताके द्वारा निर्मित उत्तम भोजन ग्रहण करता था ॥१६२॥ जिसका शरीर चन्दनसे लिप्त था, जो स्वर्णनिर्मित छोटीछोटी घण्टियोंसे अलंकृत था तथा जो रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त शिरको धारण कर रहा था ऐसा वह पक्षी अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।१६३।। यतश्च उसके शरीर पर रत्न तथा स्वर्णनिर्मित किरणरूपी जटाएँ सुशोभित हो रही थी इसलिए राम आदि उसे 'जटायु' इस नामसे दुलाते थे। वह उन्हें अत्यन्त प्यारा था ॥१६४॥ जिसने हंसकी चालको जीत लिया था, जो स्वयं सुन्दर था और सुन्दर विलासोंसे जो युक्त था ऐसे उस जटायुको देखकर अन्य पक्षी भयभीत होते हुए आश्चर्यचकित रह जाते थे ॥१६५।। वह भक्तिसे नम्रीभूत होकर तीनों सन्ध्याओंमें सीताके साथ अरहन्त, सिद्ध तथा निर्ग्रन्थ साधुजोंको नमस्कार करता था ॥१६६।। धर्मसे स्नेह करनेवाली दयालु सीता बड़ी सावधानीसे उसकी रक्षा करती हुई सदा उसपर बहुत प्रेम रखती थी ॥१६७|| इस प्रकार वह पक्षी अपनी इच्छानुसार शुद्ध तथा अमृतके समान स्वादिष्ट फलोंको खाता और जंगलमें उत्तम जलको पीता हुआ निरन्तर उत्तम आचरण करता था॥१६८।। जब सौता तालका शब्द देती हई धर्ममय गीतोंका उच्चारण करती थी और पति तथा देवर उसके स्वर में स्वर मिलाकर साथ-साथ गाते थे तब सूर्यके समान कान्तिको धारण करनेवाला वह जटायु हर्षित हो नृत्य करता था ॥१६९।। इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरितमें जटायुका वर्णन
करनेवाला इकतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४१॥
१. सूर्यसमप्रभाधारकः ।
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