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पद्मपुराणे
गुरुणा च यथादिष्टं तां दृष्ट्वा तमुदाहरत् । तथा वृत्तं च तत्सर्व यातमग्नेः समक्षताम् ॥१३॥ ततोऽसौ विधुरा नाम्ना विलासस्य शरीरजा । याचिता श्रेष्ठिना लब्धा प्रवरेण मनोहरा ॥१३२॥ विवाहसमये प्राप्ते प्रवराय न्यवेदयत् । अग्निकेतुर्यथेयं तं दुहितासीद् भवान्तरे ॥१३३।। विलासायापि ते सर्वे भवास्तेन निवेदिताः। श्रुत्वा तत्कन्यका जाता जातिस्मरणकोविदा ॥१३॥ ततः प्रव्रमितं वाञ्छां सा संवेगपराकरोत् । प्रवरश्च विलासेन व्यवहार दुराशयः ।।१३५॥ सभायां पितुरस्माकं प्रवरे भगतां गते । आर्थिकात्वमिना कन्या श्रमणत्वं च तापसः ॥१३६॥ वृतान्तसीदशं श्रुत्वा वयं वैराग्यरिताः । सकाशेऽनन्तपीर्थस्य जैनेन्द्रवतमाश्रिताः ।।१३७॥ एव मोहपरीवानां प्राणिनामतिभूरिशः । जायन्ते कुत्सिताचारा भवसंततिदायिनः ॥१३८॥ मातापितृसहन्निवभार्थापत्यादिकं जनः । सुखडःखादिकं चाय पिवत लमते भवे ॥१३९॥ तच्छुल्ला सुतरां पक्षी मीतोऽभूद् भवदुःखतः । चकार च मुहुःशब्दं धर्मग्रहणवान्छया ॥१४०॥ उन्ध गुरुणा भद्र मा भैषीरधुना नतम् । गृहाण थेन नो भूयः प्राप्यते दुःखसंततिः ।।१४१॥ प्रशान्तो भद मा पीड़ा' कार्षीः सर्वासुधारिणाम् । अनृतं स्तेषतां भायां परकीयां विवर्जय ॥१४२॥ एकान्तब्रह्मचर्य वा गृहोवा सत्क्षमान्वितः । रात्रिभुनि परित्यज्य मव शोभनचेष्टितः ॥१४३।। प्रयतोऽति क्षपायां च जिनेन्द्रान् वह चेतसा । उपवासादिकं शक्त्या सुधीनियमाचर ।।१४४॥
गुरुने जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार उस कन्याको देखकर सुकेतुने अपने भाई अग्निकेतुसे कहा और वह राबका सब वृत्तान्त उसी प्रकार अग्निकेतुके सामने आ गया अर्थात् सच निकला ॥१३१॥
तदनन्तर वह कन्या जब मरकर चौथे भवमें विलासके विधुरा नामकी पुत्री हुई तब प्रवर नामक सेठने उस सुन्दरीको याचना की और वह उसे प्राप्त भी हो गयी ॥१३२॥ जब विवाहका समय आया तब अग्निकेतुने प्रवरसे कहा कि यह कन्या भवान्तरमें तुम्हारी पुत्री थी ॥१३३।। यह कहकर उराने कन्याके वर्तमान पिता विलासके लिए भी उसके वे सब भव कह सुनाये। उन भवोंको सुनकर कन्याको जातिस्मरण हो गया ॥१३४।। जिससे संसारसे भयभीत हो उसने दीक्षा धारण करने का विचार कर लिया। इधर प्रवरने समझा कि विलास किसी छलके कारण मेरे साथ अपनी कन्याका विवाह नहीं कर रहा है इसलिए दूषित अभिप्रायको धारण करनेवाले प्रवरने हमारे पिताको सभामें विलासके विरुद्ध अभियोग चलाया परन्तु अन्तमें प्रवरको हार हुई, कन्या आयिका पद को प्राप्त हुई और अग्निकेतु तापस दिगम्बरमुनि वन गया ॥१३५-१३६॥ वृत्तान्तको सुनकर हमने भो विरक्त हो अनन्तवीर्य नामक मनिराजके समीप जिनेन्द्र दीक्षा धारण कर ली ॥१३७।। इस प्रकार मोही जोवोंसे संसारको सन्ततिको बढ़ानेवाले अनेक खोटे आचरण हो जाया करते हैं ।।१३८॥ यह जीव अपने किये हुए कर्मोके अनुसार ही माता, पिता, स्नेही मित्र, स्त्री, पुत्र तथा सुख-दुःखादिकको भव-भवमें प्राप्त होता है ॥१३९।।
यह सुनकर वह गृध्र पक्षी संसार सम्बन्धी दुःखोंसे अत्यन्त भयभीत हो गया और धर्म ग्रहण करनेका इच्छ से बार-बार शब्द करने लगा ।।१४०॥ तब मनिराजने कहा कि है भद्र ! भय मत करो। इस समय व्रत धारण करो जिससे फिर यह दुःखोकी सन्तति प्राप्त न हो ।।१४१।। अत्यन्त शान्त हो जाओ, किसी भी प्राणीको पीड़ा मत पहुँचाओ, असत्य बधन, चोरी और परस्त्रीका त्याग करो अथवा पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण कर उत्तम क्षमासे युक्त हो रात्रि भोजनका त्याग करो, उत्तम चेक्षओंसे युक्त होओ, बड़े प्रयत्नसे रात-दिन जिनेन्द्र भगवान्को हृदयमें धारण करो, शक्त्यनुसार विवेकपूर्वक उपवासादि नियमोंका आचरण करो, प्रमादरहित होकर इन्द्रियोंको
१. पीडा म. । २. प्राताघ्रि क्षिपायां च ( ? ) म.। ३. बहुचेतसा म. ।
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