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पद्मपुराणं
दृष्टान्तः परकीयोsपि शान्तेर्भवति कारणम् । असमञ्जसमात्मीयं किं पुनः स्मृतिमागतम् ॥१०१॥ पक्षिणं संयतोऽगादीन्मा भैषीरधुना द्विज । मा रोदीर्यद्यथा भाव्यं कः करोति तदन्यथा ॥ १०२॥ आश्वासं गच्छ विश्रब्धः कम्पं मुञ्च सुखी भव । पश्य के मरण्यानी क रामः सीतयान्वितः ॥ १०३ ॥ अवग्रहोऽस्मदीयः क्व क्व त्वमात्मार्थं संगतः । प्रबुद्धो दुःखसंबोधः कर्मणामिदमीहितम् ॥ १०४ ॥ इदं कर्म विचित्रत्वाद् विचित्रं परमं जगत् । अनुभूतं श्रुतं दृष्टं यथैव प्रवदाम्यहम् ॥ १०५ ॥ पक्षिणः प्रतिबोधार्थं ज्ञात्वाकूतं च सीरिणः । सुगुप्तिरवदत् स्वस्य सुगुप्तेः शमकारणम् ॥ १०६ ॥ अचलो नाम विख्यातो वाराणस्यां महीपतिः । गिरिदेवीति जायास्य गुणरत्नविभूषिता ॥ १०७॥ त्रिगुप्त इति विख्यातो गुणनाम्नान्यदा मुनिः । पारणार्थं गृहं तस्याः प्रविष्टः शुद्धचेष्टितः ॥ १०८ ॥ स तया परमां श्रद्धां दधत्या विधिपूर्विकाम् । तर्पितः परमानेन स्वयं व्यापारमुक्तया ॥ १०९ ॥ समाप्ताशनकृत्यं च पादन्यस्तोत्तमाङ्गया । पप्रच्छान्यापदेशेन स्वस्य पुत्रसमुद्भवम् ॥ ११०॥ नाथ सातिशयोऽयं मे गृहवासो भविष्यति । किं वा नेति प्रसादोऽयं क्रियतां निश्चयार्पणम् ॥ १११ ॥ 'वचोगु िततो भित्वा राज्ञीभक्त्यनुरोधतः । तस्याश्चारुसमादिष्टं मुनिना तनयद्वयम् ॥ ११२ ॥ त्रिगुप्तस्य मुनेस्तस्य समादेशेऽनयत् सुतौ । जाती सुगुप्सिगुप्ताख्यौ पितृभ्यां तौ ततः कृतौ ॥ ११३॥ तौ च सर्व कलाभिज्ञौ कुमारश्रीसमन्वितौ । तिष्ठन्तौ विविधैर्भावै रममाणौ जनप्रियौ ॥११४॥ वृत्तान्तोऽयं च संजातो गन्धर्वैस्यां महीपतेः । पुरोहितस्य सोमस्य प्रियायास्तनयद्वयम् ॥ ११५ ॥
दूसरेका उदाहरण भी शान्तिका कारण हो जाता है फिर यदि अपनी ही खोटी बात स्मरण आ जावे तो कहना ही क्या है ? || १०१ || रामसे इतता कहकर मुनिराजने गृध्रसे कहा कि हे द्विज ! अब भयभीत मत होओ, रोओ मत, जो बात जैसी होनेवाली है उसे अन्यथा कौन कर सकता है ? ॥१०२॥ धैर्यं धरो, निश्चिन्त होकर कँपकँपी छोड़ो, सुखी होओ, देखो यह महा अटवी कहाँ ? और सीता सहित राम कहाँ ? || १०३ || हमारा पडगाहन कहाँ ? और आत्मकल्याणके लिए दुःखका अनुभव करते हुए तुम्हारा प्रबुद्ध होना कहाँ ? कर्मोंकी ऐसी ही चेष्टा है ॥ १०४ ॥ कर्मोकी विचित्रताके कारण यह संसार अत्यन्त विचित्र है । जैसा मैंने अनुभव किया है, सुना है, अथवा देखा है वैसा ही मैं कह रहा हूँ || १०५ ॥ पक्षीको समझानेके लिए रामका अभिप्राय जान सुगुप्ति मुनिराज अपनी दीक्षा तथा शान्तिका कारण कहने लगे ॥ १०६ ॥
उन्होंने कहा कि वाराणसी नगरी में एक अचल नामका प्रसिद्ध राजा था । उसकी गुणरूपी रत्नों से विभूषित गिरि देवी नामकी स्त्री थी ॥ १०७॥ किसी दिन त्रिगुप्त इस सार्थक नामको धारण करनेवाले तथा शुद्ध चेष्टाओंके धारक मुनिराजने आहारके लिए उसके घर प्रवेश किया ॥ १०८ ॥ सो विधिपूर्वक परम श्रद्धाको धारण करनेवाली गिरिदेवीने अन्य सब कार्य छोड़ स्वयं ही उत्तम आहार देकर उन्हें सन्तुष्ट किया || १०९ || जब मुनिराज आहार कर चुके तब उसने उनके चरणों में मस्तक झुकाकर किसी दूसरेके बहाने अपने पुत्र उत्पन्न होनेकी बात पूछी ॥११०॥ उसने कहा कि हे नाथ! मेरा यह गृहवास सार्थक होगा या नहीं ? इस बातका निश्चय कराकर प्रसन्नता कीजिए ॥ १११ ॥ तदनन्तर मुनि यद्यपि तीन गुप्तियोंके धारक थे तथापि रानीकी भक्तिके अनुरोधसे वचनगुप्तिको तोड़कर उन्होंने कहा कि तुम्हारे दो सुन्दर पुत्र होंगे ॥ ११२ ॥ | तदनन्तर उन त्रिगुप्त मुनिराज के कहे अनुसार दो पुत्र उत्पन्न हुए सो माता-पिताने उनके 'सुगुप्ति' और 'गुप्त' इस प्रकार नाम रखे ॥११३॥ वे दोनों ही पुत्र सर्वं कलाओंके जानकार, कुमार लक्ष्मीसे सुशोभित, अनेक भावोंसे रमण करते तथा लोगोंके अत्यन्त प्रिय थे ॥ ११४ ॥
उसी समय यह दूसरा वृत्तान्त हुआ कि गन्धवती नामकी नगरीके राजाके सोम नामक १. रामस्य । २. वाणारस्यां म । ३. निश्चयार्पणो म । ४. गन्धावत्यां म.
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