________________
२०४
पद्मपुराणे देवीविटपरिव्राजा ज्ञात्वान्यविषयं नृपम् । इदं क्रोधपरीतेन विधातुमभिवान्छितम् ॥७२॥ जीवितस्नेहमुत्सृज्य परदुःखाहितात्मकः । निर्ग्रन्थरूपमृदेव्याः संपर्कमभजत् पुनः ॥७३॥ ज्ञात्वा तदीदृशं कर्म राज्ञातिक्रोधमीयुषा । अमात्याद्युपदेशं च स्मृत्वा निर्ग्रन्थनिन्दनम् ॥७२॥ करकर्मभिरन्यैश्च प्रेरितः श्रमणाहितैः । आज्ञापयन् महर्षीणां यन्त्रनिष्पीडने नरान् ॥७५॥ गणाधिपसमेतोऽसौ समूहोऽम्बरवाससाम् । यन्त्रनिष्पीडनैर्नीतः पञ्चतां पापकर्मणा ॥७६॥ बाह्यभूमिगतस्तत्र मुनिरेकः समावजन् । इत्यवार्यत लोकेन केनचित् करुणायता ॥७॥ भो भो निर्ग्रन्थ मागास्त्वं पूर्वनैर्ऋन्थ्यमाश्रयन् । यन्त्रेणापीडयसे तत्र दूतं कुरु पलायनम् ॥७८॥ यन्त्रेषु श्रमणाः सर्वे राज्ञा क्रुद्धेन पीडिताः । मागास्त्वमप्यवस्थां तां रक्ष धर्माश्रयं वपुः ॥७९॥ ततः क्षणमसौ संधमृत्युदुःखेन शल्यितः । वज्रस्तम्म इवाकम्पस्तस्थाकव्यक्तचेतनः ॥८॥ अथास्य शतदुःखेन प्रेरितः शमगह्वरात् । निरम्बरमहीध्रस्य निरगात् क्रोधकेसरी ॥८१॥ रक्ताशोकप्रकाशेन निखिलं तस्य चक्षुषः । तेजसा विहितं व्योम संध्यामयमिवाभवत् ॥८२॥ कोपेन तप्यमानस्य मुनेः सर्वत्र विग्रहे । प्रस्वेदबिन्दवो जाताः प्रतिबिम्बित विष्टपाः ॥८३॥ ततः कालानलाकारो बहुलः कुटिलः पृथुः । हाकारेण मुखात्तस्य निरगात् पावकध्वजः ॥४४॥
अनुलग्नश्च तस्याग्निरुज्जगाम निरन्तरम् । कृतं नभस्तलं येन निरिन्धनविदीपितम् ॥८५॥ दिये ।।७१॥ रानीके साथ गुप्त समागम करनेवाले परिव्राजकोंके अघिपतिने जब राजाके इस . परिवर्तनको जाना तब क्रोधसे युक्त होकर उसने यह करनेकी इच्छा की ॥७२॥ दूसरे प्राणियोंको दुःख देनेमें जिसका हदय लग रहा था ऐसे उस परिव्राजकने जीवनका स्नेह छोड़ निर्ग्रन्थ मुनिका रूप धर रानीके साथ सम्पर्क किया ॥७३॥ जब राजाको इस कार्यका पता चला तब वह अत्यन्त क्रोधको प्राप्त हुआ। मन्त्री आदि अपने उपदेशमें निर्ग्रन्थ मुनियोंकी जो निन्दा किया करते थे वह सब इसकी स्मतिमें झलने लगा ||७४|| उसी समय मुनियोंसे द्वेष रखनेवाले अन्य दुष्ट भी राजाको प्रेरित किया जिससे उसने अपने सेवकोंके लिए समस्त मुनियोंको घानीमें पेलनेकी आज्ञा दे दी ॥७५।। जिसके फलस्वरूप गणनायकके साथ-साथ जितना मुनियोंका समूह था वह सब, पापी मनुष्योंके द्वारा घानीमें पिलकर मृत्युको प्राप्त हो गया ॥७६|| उस समय एक मुनि कहीं बाहर गये थे जो लोटकर उसी नगरीकी ओर आ रहे थे। उन्हें किसी दयालु मनुष्यने यह कहकर रोका कि हे निग्रन्थ ! हे दिगम्बरमुद्राके धारी! तुम अपने पहलेका निर्ग्रन्थवेष धारण करते हुए नगरीमें मत जाओ, अन्यथा घानीमें पेल दिये जाओगे, शीघ्र ही यहाँसे भाग जाओ ॥७७-७८।। राजाने क्रद्ध होकर समस्त निर्ग्रन्थ मनियोंको घानीमें पिलवा दिया है तुम भी इस अवस्थाको प्राप्त मत होओ, धर्मका आश्रय जो शरीर है उसकी रक्षा करो ||७||
तदनन्तर समस्त संघकी मृत्युके दुःखसे जिन्हें शल्य लग रही थी ऐसे वे मुनि क्षण-भरके लिए व्रजके स्तम्भको नाई अकम्प-निश्चल हो गये। उस समय उनकी चेतना अव्यक्त हो गयी थी अर्थात् यह नहीं जान पड़ता था कि जीवित है या मृत ? ||८०॥ अधानन्तर उन निर्ग्रन्थ मुनिरूपी पर्वतको शान्तिरूपी गुफासे सैकड़ों दुःखोंसे प्रेरित हुआ क्रोधरूपी सिंह बाहर निकला ||८१॥ उनके नेत्रके अशोकके समान लाल-लाल तेजसे आकाश ऐसा व्याप्त हो गया मानी उसमें सन्ध्या ही व्याप्त हो गयी हो ॥८२।। क्रोधसे तपे हुए मुनिराजके समस्त शरीरमें स्वेदकी बूंदें निकल आयीं और उनमें लोकका प्रतिबिम्ब पड़ने लगा।।८३।। तदनन्तर उन मुनिराजने मुखसे 'हा' शब्दका उच्चारण किया उसीके साथ मुखसे धुआँ निकला जो कालाग्निके समान अत्यधिक कुटिल और विशाल था ॥८४॥ उस धुआँके साथ ऐसी ही निरन्तर अग्नि निकली कि जिसने इंधनके बिना ही समस्त १. विटपरिवाजी म.। २. वरवाससाम् म. । ३. अग्निः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org