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रमपुराणे हा मातः पश्यतामुष्य धाष्ट्यं गृध्रस्य पापिनः । चिन्तयित्वेति वैदेया कोपाकुलितचित्तया ॥४३॥ वार्यमाणोऽपि यत्नेन कृतनिष्ठुरशब्दया। मुनिपादोदकं पक्षी सोत्साहः पातुमुद्यतः ॥४४॥ पादोदकप्रमावेण शरीरं तस्य तत्क्षणम् । रत्नराशिसमं जातं परीतं चित्रतेजसा ॥४५॥ जातौ हेमप्रभौ पक्षौ पादौ वैडूर्यसंनिभौ । नानारत्नच्छविर्देहश्चन्चुर्विद्रुमविभ्रमा ॥४६॥ ततः स्वमन्यथाभूतमवलोक्य सुसंमदः । विमुञ्चन्मधुरं नादं नर्तितुं स समुद्यतः ॥४७॥ देवदुन्दुभिनादोऽसावेव तस्यातिसुन्दरम् । आतोद्यत्वं परिप्राप्तं स्वां च वाणी सुतेजसः॥४८॥ मुञ्चन्नानन्दनेत्राम्मश्चक्रीकृत्य गुरुद्वयम् । शुशुभे कृतनृत्योऽसौ शिखी मेघागमे यथा ॥४९॥ विधिना पारणां कृत्वा मुनी कृतयथोचितौ । वैडूर्यसदृशे राजन्नुपविष्टौ शिलातले ॥५०॥ पद्मरागाभनेत्रश्च पक्षी संकुचितच्छदः । प्रणम्य पादयोः साधोः सुखं तस्थौ कृताञ्जलिः ॥५१॥ क्षणादग्निमिवालोक्य ज्वलन्तं तेजसा खगम् । पद्मो विकचपद्माक्षो विस्मयं परमं गतः ॥५२॥ प्रणम्य पादयोः साधं गुणशीलविभूषणम् । अपृच्छदिति विन्यस्य मुहुनत्रे पतत्रिणि ॥५३॥ भगवन्नयमत्यन्तं विरूपावयवः पुरा । कथं क्षणेन संजातो हेमरत्नचयच्छविः ॥५४॥ अशुचिः सर्वमांसादो गृद्धोऽयं दुष्टमानसः । निषद्य पादयोः शान्तस्तव कस्मादवस्थितः॥५५॥
सुगुप्तिश्रमणोऽवोचद् राजन् पूर्वमिहाभवत् । देशो जनपदाकीर्णो विषयः सुन्दरो महान् ॥५६॥ ॥४०-४१॥ यहाँ इस अत्यधिक कोलाहलसे हाथी तथा सिंहादिक बड़े-बड़े जन्तु तो भाग गये पर यह दुष्ट नीच पक्षी क्यों नहीं भागा। हा मातः ! इस पापी गृध्रकी धृष्टता तो देखो; इस प्रकार विचारकर जिसका चित्त क्रोधसे आकुलित हो रहा था तथा जिसने कठोर शब्दोंका उच्चारण किया था ऐसी सीताने यद्यपि प्रयत्नपूर्वक उस पक्षोको रोका था तथापि वह बड़े उत्साहसे मुनिराजके चरणोदकको पीने लगा ।।४२-४४॥ चरणोदकके प्रभावसे उसका शरीर उसी समय रत्नराशिके समान नाना प्रकारके तेजसे व्याप्त हो गया ॥४५॥ उसके दोनों पंख सुवर्णके समान हो गये, पैर नील मणिके समान दिखने लगे, शरीर नाना रत्नोंकी कान्तिका धारक हो गया और चोंच मूंगाके समान दिखने लगी ॥४६॥ तदनन्तर अपने आपको अन्य रूप देख वह अत्यन्त हर्षित हुआ और मधुर शब्द छोड़ता हुआ नृत्य करनेके लिए उद्यत हुआ ॥४७॥ उस समय जो देव-दुन्दुभिका नाद हो रहा था वही उस तेजस्वीकी अपनी वाणीसे मिलता-जुलता अत्यन्त सुन्दर साजका काम दे रहा था ।।४८।। दोनों मुनियोंकी प्रदक्षिणा देकर हर्षाश्रको छोड़ता हुआ वह नृत्य करनेवाला गृध्र पक्षी वर्षा ऋतुके मयूरके समान सुशोभित हो रहा था ।।४९।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिनका यथोचित सत्कार किया गया था ऐसे दोनों मुनिराज विधिपूर्वक पारणा कर वैडूर्यमणिके समान जो शिलातल था उसपर विराजमान हो गये ॥५०॥ और पद्मराग मणिके समान नेत्रोंका धारक गध्र पक्षी भी अपने पंख संकुचित कर तथा मुनिराजके चरणोंमें प्रणाम कर अंजली बांध सुखसे बैठ गया ॥५१॥ विकसित कमलके समान नेत्रोंको धारण करनेवाले राम, क्षणभरमें तेजसे जलती हुई अग्निके समान उस गृध्र पक्षीको देखकर परम आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥५२॥ उन्होंने पक्षीपर बार-बार नेत्र डालकर तथा गुण और शीलरूपी आभूषणको धारण करनेवाले मुनिराजके चरणोंमें नमस्कार कर उनसे इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह पक्षो पहले तो अत्यन्त विरूप शरीरका धारक था पर अब क्षण-भरमें सुवर्ण तथा रत्नराशिके समान कान्तिका धारक कैसे हो गया? ॥५३-५४|| महाअपवित्र, सब प्रकारका मांस खानेवाला तथा दुष्ट हृदयका धारक यह गृध्र आपके चरणों में बैठकर अत्यन्त शान्त कैसे हो गया है ? ॥५५।।
तदनन्तर सुगुप्ति नामक मुनिराज बोले कि हे राजन् । पहले यहाँ नाना जनपदोंसे व्याप्त १. सुन्दरी म. । २. त्वां म. । ३. पारणं म. ।
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