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एकचत्वारिंशत्तम पर्व एवं च पर्युपास्यैतौ मुनी रामः प्रियान्वितः । समस्तमावसंभारकृतनिर्ग्रन्थमाननः ॥२८॥ तावदुन्दुभयो नेदुर्गगनेऽदृष्टताडिताः । वत्रौ समोरणः स्वैरं घ्राणरञ्जनकारणम् ॥२९॥ साधु साध्विति देवानां मधुरो निस्वनोऽभवत् । ववर्ष पञ्चवर्णानि कुसुमानि नभस्तलम् ॥३०॥ पात्रदानानुभावेन दिव्या सकलवर्णिका । पूरयन्ती नभोऽपप्तद्वसुधारा महाद्युतिः ॥३१॥ अथात्रैव वनोद्देशे गहनस्य महातरोः । निषण्णोऽग्रे महागृधः स्वेच्छयावस्थितोऽभवत् ॥३२॥ स दृष्ट्वाऽतिशयोपेतौ मुनी कर्मानुभावतः । बहूनात्मभवान् स्मृत्वा तत्तदैवमचिन्तयन् ॥३३॥ मनुष्यभावसुकरं प्रमत्तेन मया पुरा । विवेकिनापि न कृतं तपो धिग्मामचेतनम् ॥३४॥ भाव प्रतष्यसे किं स्वमधुना पापचेष्टितः । कसुपायं करोम्येतां कुत्सितां योनिमागतः ॥३५॥ अनुकूलारिभिः पापमित्रशब्दनधारिभिः । प्रेरितेन सता त्यक्तं धर्मरत्नं सदा मया ॥३६॥ सुभूरिचरितं पापमपकर्ण्य गुरूदितम् । मोहध्वान्तपरीतेन दह्ये यदधुना स्मरन् । ३७॥ न किंचिदत्र बहुना चिन्तितेन प्रयोजनम् । गतिरन्या न मे लोके विद्यते दुःखसंक्षये ॥३८॥ एतौ प्रयामि शरणं साधू सर्वसुखावहौ । इतो मे परमार्थस्य प्राप्तिः संजायते ध्रुवम् ॥३०॥ इति पूर्वभवैध्यानात् परमं शोकमागतः । दर्शनाच्च महासाधोः प्रमोदं त्वरयान्वितः ॥४०॥ विधूय पक्षयुगलमश्रुसंपूर्णलोचनः । पपात शाखिनो मूर्ध्नः प्रश्रयान्वितविभ्रमः ॥४॥ नागाः सिंहादयोऽप्यत्र नादेन महतामुना विदुद्रुवुरयं दुष्टः कथं तु न खगाधमः ॥४२॥
मुनियोंके चित्त भोजन विषयक गृध्रताके सम्बन्धसे रहित थे ॥२७॥ इस प्रकार समस्त भावोंसे मुनियोंका सन्मान करनेवाले राम इन दोनों मुनियोंकी सेवा कर सीताके साथ बैठे ही थे कि उसे समय आकाशमें अदृष्टजनोंसे ताडित दुन्दुभि बाजे बजने लगे, घ्राण इन्द्रियको प्रसन्न करनेवाल वायु धीरे-धीरे बहने लगी, 'धन्य, धन्य' इस प्रकार देवोंका मधुर शब्द होने लगा, आकाश पाँच वर्णके फूल बरसाने लगा और पात्रदानके प्रभावसे आकाशको व्याप्त करनेवाली, महाकान्तिकी धारक, सब रंगोंकी दिव्यरत्न वृष्टि होने लगी॥२८-३१॥
- अथानन्तर वनके इसी स्थानमें सघन महावृक्षके अग्रभागपर एक बड़ा भारी गृध्र पक्षी स्वेच्छासे बैठा ॥३२॥ सो अतिशय पूर्ण दोनों मुनिराजोंको देखकर कर्मोदयके प्रभावसे उसे अपने अनेक भव स्मृत हो उठे । वह उस समय इस प्रकार विचार करने लगा ॥३३॥ कि यद्यपि मैं पूर्व पर्यायमें विवेकी था तो भी मैंने प्रमादी बनकर मनुष्य भवमें करने योग्य तपश्चरण नहीं किया अतः मुझ अविवेकीको धिक्कार हो ॥३४॥ हे हृदय ! अब क्यों सन्ताप कर रहा है ? इस समय तो इस कुयोनिमें आकर पाप चेष्टाओंमें निमग्न हूँ अतः क्या उपाय कर सकता हूँ ? ॥३५॥ मित्र संज्ञाको धारण करनेवाले तथा अनुकूलता दिखानेवाले पापी वैरियोंसे प्रेरित हो मैंने सदा धर्मरूपी रत्नका परित्याग किया है ॥३६।। मोहरूपी अन्धकारसे व्याप्त होकर मैंने गुरुओंका उपदेश न सुन जिस अत्यधिक पापका आचरण किया है उसे आज स्मरण करता हुआ ही जल रहा हूँ॥३७॥ अथवा इस विषयमें बहुत विचार करनेसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है क्योंकि दुःखोंका क्षय करनेके, लिए लोकमें मेरी दूसरी गति नहीं है-अन्य उपाय नहीं है। मैं तो सब जीवोंको सुख देनेवाले इन्हीं दोनों मुनियोंकी शरणको प्राप्त होता हूँ। इनसे निश्चित ही मुझे परमार्थकी प्राप्ति होगी ॥३८-३९।। इस प्रकार पूर्वभवका स्मरण होनेसे जो परम शोकको प्राप्त हुआ था तथा महामनियोंके दर्शनसे जो अत्यधिक हर्षको प्राप्त था ऐसा शीघ्रतासे सहित, अश्रुपूर्ण नेत्रोंका धारक, एवं विनयपूर्णं चेष्टाओंसे सहित वह गृध्र पक्षी दोनों पंख फड़फड़ाकर वृक्षके शिखरसे नीचे आया १. नभस्तले म. । २. शब्देन धारिभिः म. । ३. मेव ध्यानात् म. ।
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