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एकचत्वारिंशत्तम पर्व
अथानरण्यनप्तारौ श्रीमन्तौ सीतयान्वितौ । दिदृशं दक्षिणाम्भोधिमायातां 'सुखमागिनौ ॥१॥ पुरग्रामसमाकीर्णानतीत्य विषयान् बहून् । प्रविष्टौ तौ महारण्यं नानामृगसमाकुलम् ॥२॥ यस्मिन्न विद्यते पन्थाः स्थानं नार्यनिषेवितम् । पुलिन्दानामपि प्रायो दुश्चरं यनगाकुलम् ।।३।। नानावृक्षलताकीर्ण महाविषमगह्वरम् । गुहान्धकारगम्भीरं वहन्निर्झरनिम्नगम् ॥४॥ क्रोशं क्रोशं शनैस्तत्र गच्छन्तौ जानकीवशात् । निर्भयौ क्रीडनोद्युक्तो प्राप्तौ कर्णरवां नदीम् ॥५॥ यस्यास्तटानि रम्याणि तृणैर्युक्तानि भूरिभिः। समान्यायतदेशानि स्पर्श बिभ्रति सौख्यदम् ॥६॥ अनत्युच्चैर्घनच्छायैः फलपुष्पविभूषितैः । रेजुस्तद्रुमैस्तस्याः समीपधरणीधराः ॥७॥ वनमेतदलं चारु नदी चेति निरूप्य तौ । रम्ये तत्र तरुच्छायेऽवस्थितौ सीतयान्वितौ ॥८॥ क्षणं स्थित्वाऽतिरम्याणि सैकतान्यवगाह्य च । जलावगाहनं चक्रस्ते रम्यक्रीडयोचितम् ।।९।। ततो मृष्टानि पक्वानि फलानि कुसुमानि च । यथेच्छमुपभुक्तानि तैः सुखं कृतसंकथैः ॥१०॥ तत्र भाण्डोपकरणं सकलं केकयीसुतः। मृदावंशः पलाशैश्च विविधैराशु निर्ममे ।।१।। अमीषु स्वादचारूणि फलानि सुरभीनि च । वनजानि च सस्यानि राजपुत्री समस्करोत् ॥१२॥ अन्यदातिथिवेलायां-गगनाङ्गणचारिणौ । प्रमापटलसंवीतविग्रही चारुदर्शनौ ॥१३॥
अथानन्तर जिन्हें दक्षिण समुद्र देखनेकी इच्छा थी तथा जो निरन्तर सुख भोगते आते थे ऐसे श्रीमान् राम-लक्ष्मण सीताके साथ नगर और ग्रामोंसे व्याप्त बहुत देशोंको पार कर नाना प्रकारके मृगोंसे व्याप्त महावन में प्रविष्ट हुए ॥१-२॥ ऐसे सघन वनमें प्रविष्ट हुए जिसमें मार्ग ही नहीं सूझता था, उत्तम मनुष्योंके द्वारा सेवित एक भी स्थान नहीं था, वनचारी भीलोंके लिए भी जहाँ चलना कठिन था, जो पवंतोंसे व्याप्त था, नाना प्रकारके वृक्ष और लताओंसे सघन था, जिसमें अत्यन्त विषम गतं थे, जो गुहाओंके अन्धकारसे गम्भीर जान पड़ता था, और जहाँ झरने तथा अनेक नदियाँ बह रही थीं ॥३-४॥ उस वनमें वे जानकीके कारण धीरे-धीरे एक कोश ही चलते थे। इस तरह भयसे रहित तथा क्रीड़ा करने में उद्यत दोनों भाई उस कर्णरवा नदीके
॥ जिसके कि किनारे अत्यन्त रमणीय, बहत भारी तणोंसे व्याप्त, समान, लम्बे-चौडे और सुखकारी स्पर्शको धारण करनेवाले थे॥६॥ उस कर्णरवा नदीके समीपवर्ती पर्वत, किनारेके उन वृक्षोंसे सुभोभित थे जो ज्यादा ऊँचे तो नहीं थे पर जिनको छाया अत्यन्त घनी थी तथा जो फल और फूलोंसे युक्त थे ॥७॥ यह वन तथा नदी दोनों ही अत्यन्त सुन्दर हैं ऐसा विचारकर वे एक वृक्षकी मनोहर छायामें सीताके साथ बैठ गये ॥८॥ क्षण-भर वहाँ बैठकर तथा मनोहर किनारोंपर अवगाहन कर वे सुन्दर क्रीड़ाके योग्य जलावगाहन करने लगे अर्थात् जलके भीतर प्रवेश कर जलक्रीड़ा करने लगे ॥९।। तदनन्तर परस्पर सुखकारी कथा करते हुए उन सबने वनके पके मधुर फल तथा फूलोंका इच्छानुसार उपभोग किया ॥१०॥ वहाँ लक्ष्मणने नाना प्रकारको मिट्टी, बांस तथा पत्तोंसे सब प्रकारके बरतन तथा उपयोगी सामान शीघ्र ही बना लिया ॥११॥ इन सब बरतनोंमें राजपुत्री सीताने स्वादिष्ट तथा सुन्दर फल और वनको सुगन्धित धानके भोजन बनाये ॥१२॥
किसी एक दिन अतिथि प्रेक्षण के समय सीताने सहसा सामने आते हुए सुगुप्ति और गुप्ति १. सुखभोगिनौ म. । २. सामान्यायत-म. । ३. चैती निरूपितो म. । ४. मृदावसः म. ।
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