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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व
२०५ उल्काभिर्नु जगद्व्यासं ज्योतिर्देवाः पतन्ति नु । महाप्रलयकालो नु वह्निदेवा जु रोषिताः ॥८६॥ हा हा मातः किमेतन्नु तापोऽयमतिदुस्सहः । चश्चत्पाव्यते दीर्घसंदंशैरिव वेगिमिः ॥८॥ मूर्तिनिर्मुक्तमेवैतद्गगनं कुरुते ध्वनिम् । वंशारण्यमिवोद्दीप्तं जीविताकर्षणोचितम् ॥४८॥ यावदेव ध्वनिलोके वर्ततेऽत्यन्तमाकुलः । वलिस्तावदयं देशमनयद् भस्मशेषताम् ॥१९॥ नान्तःपुरं न देशो न पुराणि न च पर्वताः । न नद्यो नाप्यरण्यानि तदा न प्राणधारिणः ॥१०॥ महासंवेगयुक्तन मुनिना चिरमर्जितम् । क्रोधाग्निनाखिलं दग्धं तपोऽन्यत् किमु शिष्यताम् ॥९॥ यतोऽयं दण्डको देशः आसीइण्डकपार्थिवः। तेनैव वनिनाद्यापि दण्डकः परिकीर्यते ॥९२॥ काले महत्यतिक्रान्ते प्राप्तायां चारुतां भुवि । शुतेऽत्र पादपा जाताः पर्वताश्च सशिनगाः ॥५३॥ मुनेस्तस्य प्रभावेण सुराणामपि भीतिदम् । वनमेतदमत् कैव वार्ता विद्याबलाश्रिताम् ॥१४॥ पश्चादिदं समाकीर्ण सिंहेन शरमादिभिः । नानाशकुनिवृन्दैश्च सस्यभेदैश्च भूरिभिः ॥२२॥ अद्याप्यस्योरुदावस्य श्रुत्वा शब्दं परं मयम् । व्रजन्ति मानवाः कम्पं वृत्तान्तेऽनुनिबोधिनः ॥९६।। संसारेऽतिचिरं भ्रान्त्वा दण्डको दुःखपूरितः । अयं गृधत्वमायातो वनेऽत्र रतिमागतः ॥१७॥ दृष्ट्वा सातिशयावेष नौ वनेऽत्र समागतौ । पापस्य कर्मणो हान्या प्राप्तः पूर्वभवस्मृतिम् ॥९८॥ योऽसौ परमया शक्त्या युक्तोऽभूदण्डको नृपः । सोऽयं पश्यत संजातः कीदृशः पापकर्ममि. ॥१९॥ इति विज्ञाय विरसं फलं कटुककर्मणः । कथं न सज्यते धर्म दुरिताच विरज्यते ॥१०॥
आकाशको देदीप्यमान कर दिया ॥८५॥ क्या यह लोक उल्काओंसे व्याप्त हो रहा है ? या ज्योतिष्क देव नीचे गिर रहे हैं? या महा प्रलयकाल आ पहुँवा है? या अग्निदेव कृषित हो रहे हैं ? हाय माता! यह क्या है ? यह ताप तो अत्यन्त दुःसह है, ऐसा लगता है जैसे वैगशाली 'बड़ी-बड़ी संडासियोंसे नेत्र उखाड़े जा रहे हों, यह अमूर्तिक आकाश ही घोर शब्द कर रहा है, मातो प्राणोंके सींचने में उद्यत बाँसोंका वन ही जल रहा है, इस प्रकार अत्यन्त व्याकुलतासे भरा यह शब्द जबतक लोकमें गूंजता है तबतक उस अग्निने समस्त देशको भस्म कर दिया ॥८६-८९।। उस समय न अन्तःपुर, न देश, न नगर, न पर्वत, न नदियाँ, न जंगल और न प्राणी ही शेष रह गये थे॥२०॥ महान् संवेगसे युक्त मुनिराजने चिरकालसे जो तप संचित कर रखा था यह सबका शब्द क्रोधाग्निमें दग्ध हो गया-जल गया फिर दूसरी वस्तुएं तो बचती ही कैसे ? ।।२१।। यह दण्डक देश था तथा दण्डक ही यहाँका राजा था इसलिए आज भी यह स्थान दण्डक नामसे ही प्रसिद्ध है ।।१२।। बहुत समय बीत जानेके बाद यहाँकी भूमि कुछ सुन्दरताको प्राप्त हुई है और ये वक्ष. पर्वत तथा नदियाँ दिखाई देने लगो हैं ॥१३॥ उन मनिके प्रभावसे यह वन देवोंके लिए भी भय उत्पन्न करनेवाला है फिर विद्याधरोंकी तो बात ही क्या है ? ॥९४॥ आगे चलकर यह वन सिंह-अष्टापद आदि क्रूर जन्तुओं, नाना प्रकारके पक्षि-समूहों तथा अत्यधिक जंगली धान्योंसे युक्त हो गया ॥९.५।। आज भी इस बनकी प्रचण्ड दावानलका शब्द सुनकर मनुष्य पिछली घटनाका स्मरण कर भयभीत होते हुए काँपने लगते हैं ।।९६॥ राजा दण्डक बहुत समय तक संसारमें भ्रमण कर दुःख उठाता रहा अब गृनपर्यायको प्राप्त हो इस वनमें प्रीतिको प्राप्त हुआ है ।।९७।। इस समय इस दन आये हुए अतिशय युक्त हम दोनोंको देखकर पापकर्मकी मन्दता होनेसे यह पूर्वभवके स्मरणको प्राप्त हुआ है ।।९८॥ जो दण्डक राजा पहले परम शक्तिसे युक्त था वह देखो, आज पापकर्मोके कारण कैसा हो गया है ? ॥९९।। इस प्रकार पापकर्मका नीरस फल जानकर धर्ममें क्यों नहीं लगा जाये और पापसे क्यों नहीं विरक्त हुआ जाये ? ||१००॥
१. श्रिता म. । २. सृज्यते म.।
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