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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व
२०३ पत्तनग्रामसंवाहमटम्बपुटभेदनैः । घोषद्रोणमुखाद्यैश्च संनिवेशै विराजितः ॥५॥ कणकुण्डलनामात्र पुरमासीन् मनोहरम् । तस्मिन्नयमभूदाजा प्रतापपरमोदयः ॥५८॥ चण्डविक्रमसंपन्नो भग्नशानवकण्टकः । दण्डो मानमयः ख्यातो दण्डको नाम साधनी ॥५९॥ घृतार्थिना जलं तेन मथितं रघुनन्दन । धर्मश्रद्धापरीतेन धृतः पापागमो धिया ॥६॥ देवी मस्करिणां तस्य'वरिवस्या पराभवत् । तेषामसावधीशेन संभोगं समुपागता ॥६॥ सोऽपि तस्याः परं वश्यस्तामेव दिशमाश्रयत् । स्त्रीचित्तहरणोयुक्ताः किं न कुर्वन्ति मानवाः ॥१२॥ निष्कान्तेनान्यदा तेन नगराज साधुरीक्षितः । प्रलम्बितभुजः श्रीमान् ध्यानसंरुद्धमानसः ॥६३॥ कृष्णसर्पो मृतस्तस्य दिग्धाङ्गो विषलालया। कण्ठे निधापितस्तेन ग्रावदारुणचेतसा ॥६४॥ यावदेषोऽपनीतो न प्रदातुर्गम केनचित् । तावन्न संहरेद्योगमिति ध्यात्वा मुनिः स्थितः ॥६५॥ अतीते गणरात्रे च पुनस्तेनैव वमना । निष्क्रामन् पार्थिवोऽपश्यत्तदवस्थं महामुनिम् ॥६६॥ ऋजुनैव च रूपेण गत्वा निकटतां भृशम् । अपृच्छदपनेतारं किमेतदिति सोऽवदत् ॥६७॥ नरेन्द्र पश्य केनापि नरकावासमार्गिणा । योगस्थस्य मुनेरस्य कण्ठे सर्पः समर्पितः ॥६॥ यस्य सर्पस्य संपर्काद विग्रहस्थ समुद्गतम् । प्रतिबिम्बं शितिक्किन्नं दुर्दर्शमतिमीषणम् ॥६९॥ मुनि निःप्रतिकर्माणं दृष्ट्वा राजा तथाविधम् । प्रणम्याक्षमयद्यातास्ते च स्थानं यथोचितम् ॥७॥
ततः प्रभृति सक्तोऽसौ कतु मक्तिमनुत्तमाम् । निरम्बरमुनीन्द्राणां वारितोपद्वक्रियः ॥७१॥ एक बहुत बड़ा सुन्दर देश था ।।५६।। जो पत्तन, ग्राम, संवाह, मटम्ब, पुटभेदन, घोष और द्रोणमुख आदि रचनाओंसे सुशोभित था ॥५७।। इसी देशमें एक कर्णकुण्डल नामका मनोहर नगर था जिसमें यह परम प्रतापी राजा था। यह तीव्र पराक्रमसे युक्त, शत्रुरूपी कण्टकोंको भग्न करनेवाला, महामानी एवं साधनसम्पन्न दण्डक नामका धारक था ॥५८-५९|| हे रघुनन्दन! धर्मकी श्रद्धासे युक्त इस राजाने पापपोषक शास्त्रको समझकर बुद्धिपूर्वक धारण किया सो मानो इसने घृतकी इच्छासे जलका ही मन्थन किया ॥६०॥ राजा दण्डककी जो रानी थी वह परिव्राजकोंकी बड़ी भक्त थी क्योंकि परिव्राजकोंके स्वामीके द्वारा वह उत्तम भोगको प्राप्त हुई थी ॥६१।। राजा दण्डक रानीके वशीभूत था इसलिए यह भी उसी दिशाका आश्रय लेता था, सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियोंका चित्त हरण करने में उद्यत मनुष्य क्या नहीं करते हैं ? ॥६२।। एक दिन राजा नगरसे बाहर निकला वहाँ उसने एक ऐसे साधको देखा जो अपनी भजाएँ नीचे लटकाये हए थे, वीतराग लक्ष्मीसे सहित थे तथा जिनका मन घ्यानमें रुका हुआ था ॥६३।। पाषाणके समान कठोर चित्तके धारक राजाने उन मुनिके गले में, विषमिश्रित लारसे जिसका शरीर व्याप्त था ऐसा एक मरा हुआ काला साँप डलवा दिया ॥६४॥ 'जबतक इस सांपको कोई अलग नहीं करता है तबतक मैं योगको संकुचित नहीं करूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा कर वह मुनि उसी स्थानपर खड़े रहे ॥६५॥ तदनन्तर बहुत रात्रियाँ व्यतीत हो जानेके बाद उसी मार्गसे निकले हुए राजाने उन महामुनिको उसी प्रकार ध्यानारूढ़ देखा ॥६६॥ उसी समय कोई मनुष्य मुनिराजके गलेसे सांप अलग कर रहा था। राजा मुनिराजको सरलतासे आकृष्ट हो उनके पास गया और साँप निकालनेवाले मनुष्यसे पूछता है कि 'यह क्या है ?' इसके उत्तरमें वह मनुष्य कहता है कि राजन् ! देखो, नरककी खोज करनेवाले किसी मनुष्यने इन ध्यानारूढ़ मुनिराजके गले में साँप डाल रखा है ॥६७-६८। जिस सांपके सम्पर्कसे इनके शरीरकी आकृति श्याम, खेदखिन्न, दुर्दर्शनीय तथा अत्यन्त भयंकर हो गयी है ॥६९।। कुछ भी प्रतिकार नहीं करनेवाले मुनिको उसी प्रकार ध्यानारूढ़ देख राजाने प्रणाम कर उनसे क्षमा मांगी और तदनन्तर वह यथास्थान चला गया ॥७०|| उस समयसे राजा दिगम्बर मुनियोंकी उत्तम भक्ति करने में तत्पर हो गया और उसने मुनियोंके सब उपद्रव-कष्ट दूर कर १. वरिवश्या क., ख., ग. । २. समुपागतः म. । ३. लिप्तशरीरः । ४. नगरावास- म.।
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