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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व इन्द्रियाण्यप्रमत्तः सन्नुत्सुकान्यात्मगोचरे । कुरु युक्तव्यवस्थानि साधूनां भक्तितत्परः ॥१४५।। इत्युक्तः' साञ्जलिः पक्षी शिरो विनमयन्मुहुः । कुर्वाणो मधुरं शब्दं जग्राह मुनिमाषितम् ।।१४६॥ श्रावकोऽयं विनीतात्मा जातोऽस्माकं विनोदकृत् । इत्युक्त्वा सस्मिता सीता तं कराभ्यां समस्पृशत्॥१४७॥ साधुभ्यामुक्तमित्येतं रक्षितुं वोऽधुनोचितम् । तपस्वी शान्तचित्तोऽयं क्व वा गच्छतु पक्षभृत् ॥१४८॥ अस्मिन् सुगहनेऽरण्ये क्रूरपाणिनिषेविते । सम्यग्दृष्टेः खगस्यास्य रक्षा कार्या त्वया सदा ॥१४९॥ ततो गुरुवचः प्राप्य सुतरां स्नेहपूर्णया । सीतयानुगृहीतोऽसौ परिपालनचिन्तया ॥१५०॥ पल्ल वस्पर्शहस्ताभ्यां तं परामृशती सती । जनकस्याङ्गजा रेजे विनता गरुडं यथा ।।१५१॥ निर्ग्रन्थपुङ्गवावेमिः स्तुतिपूर्व नमस्कृतौ । बहूपकारिसंचारौ यातावात्मोचितं पदम् ।।१५२॥ नमः समुत्पतन्तौ तौ शुशुभाते महामुनी। दानधर्मसमुद्रस्य कल्लोलाविव पुष्कलौ ॥१५३॥ प्रभिन्नं वारणं तावद् वशीकृत्य वनोत्थितम् । आरुह्य लक्ष्मणः श्रुत्वा ध्वनिमागात् समाकुलः ॥१५॥ रत्नकाञ्चनराशिं च दृष्ट्वा पर्वतसंनिधिम् । नानावर्णप्रमाजालसमुद्गतसुरायुधम् ।।१५५॥ विकसन्नयनाम्भोजमहाकौतुकपूरितः । कृतो विदितवृत्तान्तः पद्मन मुदितात्मना ।।१५६।। प्राप्त बोधिरसौ पक्षी नायासीत्तौ विना क्वचित् । निर्ग्रन्थवचनं सर्व कुर्वन्नुद्यतमानसः ॥१५॥
स्मर्यमाणोपदेशेऽसौ सीतयाणुव्रताश्रमे । पद्मलक्ष्मणमार्गेण रममाणोऽभ्रमन्महीम् ॥१५८॥ व्यवस्थित कर आत्मध्यानमें उत्सुक करो और साधुओंकी भक्तिमें तत्पर होओ ।।१४२-१४५।। मुनिराजके इस प्रकार कहनेपर गृध्र पक्षीने अंजलि बाँध बार-बार शिर हिलाकर तथा मधुर शब्दका उच्चारण कर मुनिराजका उपदेश ग्रहण किया ॥१४६॥ 'विनीत आत्माको धारण करनेवाला यह श्रावक हम लोगोंका विनोद करनेवाला हो गया' यह कहकर मन्द हास्य करनेवाली सीताने उस पक्षीका दोनों हाथोंसे स्पर्श किया ॥१४७।। तदनन्तर दोनों मुनियोंने राम आदिको लक्ष्य कर कहा कि अब आप लोगोंको इसकी रक्षा करना उचित है क्योंकि शान्तचित्तको धारण करनेवाला यह बेचारा पक्षी कहाँ जायेगा ? ॥१४८|| क्रूर प्राणियोंसे भरे हुए इस सघन वनमें तुम्हें इस सम्यग्दृष्टि पक्षीकी सदा रक्षा करनी चाहिए ।।१४९।। तदनन्तर गुरुके वचन प्राप्त कर अतिशय स्नेहसे भरी सीताने उसके पालनकी चिन्ता अपने ऊपर ले उसे अनुगृहीत किया अर्थात् अपने पास ही रख लिया ॥१५०।। पल्लवके समान कोमल स्पर्शवाले हाथोंसे उसका स्पर्श करती हुई सीता ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो गरुड़का स्पर्श करती हुई उसकी मां विनता ही हो ॥१५१।।
तदनन्तर जिनका भ्रमण अनेक जीवोंका उपकार करनेवाला था ऐसे दोनों निर्ग्रन्थ साध, राम आदिके द्वारा स्तुतिपूर्वक नमस्कार किये जानेपर अपने योग्य स्थानपर चले गये ॥१५२।। आकाशमें उड़ते हुए वे दोनों महामुनि ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो दानधर्मरूपी समुद्रको दो बड़ी लहरें ही हों ।।१५३॥ उसी समय एक मदोन्मत्त हाथीको वश कर तथा उसपर सवार हो लक्ष्मण शब्द सुनकर कुछ व्यग्र होते हुए आ पहुँचे ॥१५४॥ नाना वर्णकी प्रभाओंके समूहसे जिसमें इन्द्रधनुष निकल रहा था ऐसी पर्वतके समान बहुत बड़ी रत्न तथा सुवर्णकी राशि देखकर जिनके नेत्रकमल विकसित हो रहे थे तथा जो अत्यधिक कौतुकसे युक्त थे ऐसे लक्ष्मणको प्रसन्न हृदय रामने सब समाचार विदित कराया ॥१५५-१५६॥ जिसे रत्नत्रयको प्राप्ति हुई थी तथा जो मुनिराजके समस्त वचनोंका बड़ी तत्परतासे पालन करता था ऐसा वह पक्षी राम और सीताके बिना कहीं नहीं जाता था ।।१५७।। अणुव्रताश्रममें स्थित सीता जिसे बार-बार मुनियोंके उपदेशका स्मरण कराती रहती थी ऐसा वह पक्षी राम-लक्ष्मणके मार्गमें रमण करता हुआ पृथ्वीपर भ्रमण
१. इत्युक्त्वा म. । २. इत्युक्ता म.। ३. वाधुनोचितं म.।
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