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पद्मपुराणे न यावदथवा याति मानुरस्तं कुतूहली । वीक्ष्यतां तावदधैव क्षुद्रवीर्यस्य पञ्चताम् ॥७॥ युवगर्वसमाध्माता संबन्धितनया अपि । एतदेव वचोऽमुञ्चप्रतिशब्दमिवोन्नतम् ॥७२॥ ततः पभो निवार्यता भ्रमङ्गेन महामनाः । अब्रवीलक्ष्मणं धैर्यादब्धिं गण्डषय निव ॥७३॥ युक्तमुक्तमलं तात जानक्या वस्तु पुष्कलम् । स्फुटीकृतं तु नात्यन्तमत्यासादनमीतया ॥७॥ अस्याः शृणु यदाकूतमतिवीर्यो बलोद्धतः । मरतेन स नो शक्यो वशीकतु रणाजिरे ॥७५॥ मागो न भरतस्तस्य दशमोऽपि भवत्यतः। तस्य दावानलस्यायं किं करोति महागजः ॥७६॥ दन्तिभिश्च समृद्धस्य समृद्धोऽपि तुरङ्गमः । भरतो नैव शक्तोऽस्य तथा विन्ध्यस्य केसरी ॥७॥ मरतस्य जये नात्र संशयोऽपि समीक्ष्यते । एकान्तस्तु कुतो वापि स्याजन्तुप्रलयस्तथा ॥७८॥ कष्टमेककयोर्जाते विरोधे कारणं विना । पक्षद्वयं मनुष्याणां जायते विवशक्षयम् ॥७९॥ दुरात्मनातिवीर्यण भरते च वशीकृते । जायते रघुगोत्रस्य कलकः पश्य कीदृशः ॥८॥ नेक्ष्यते संधिरप्यत्र शत्रुघ्नेन च मानिना । शैशवेन कृतं दोषं शत्रावत्युद्धते शृणु ॥८॥ विभावर्या तमिस्रायां किलावस्कन्ददायिना । रौद्रभूतिसमेतेन शत्रुघ्नेन चरिष्णुना ॥४२॥ निद्रावशीकृतान् वीरान् बहून् कृत्वा मृतक्षतान् । हस्तिनश्च दुरारोहान् प्रगलदाननिझरान् ॥४३॥ चतुःषष्टिसहस्राणि वाजिनां वातरंहसाम् । शतानि सप्त चेमानामजनाद्रिसमस्विषाम् ॥४४॥
बाह्यस्थानि पुरस्यास्य नीतानि दिवसैस्विभिः । मरतस्यान्तिकं किं ते न श्रुतानि जना स्यतः ॥८५।। बात ही क्या है ? ॥७०॥ अथवा कुतूहलसे भरा सूर्य जबतक अस्त नहीं होता है तबतक आज ही अणुवीर्यकी मृत्यु देख लेना ॥७१॥ तरुण लक्ष्मणके गवसे फूले राजा पृथिवीधरके पुत्रोंने भी प्रतिध्वनिके समान यही जोरदार शब्द कहे ॥७२॥
तदनन्तर धैर्यसे समुद्रको कुल्लेके समान तुच्छ करनेवाले महामना रामने भ्रकुटिके भंगसे पृथिवीधरके पुत्रोंको रोककर लक्ष्मणसे कहा कि हे तात ! सीताने सब बात बिलकुल ठीक कही है केवल रहस्य खुल न जाये इससे भयभीत हो खुलासा नहीं किया है ॥७३-७४|| उसका जो अभिप्राय है वह सुनो। यह कह रही है कि चूंकि अतिवीर्य बलसे उद्धत है अतः भरतके द्वारा रणांगणमें वश करनेके योग्य नहीं है ।।७५॥ भरत उसके दशवें भाग भी नहीं है वह दावानलके समान है अतः यह महागज उसका क्या कर सकता है ? ||७६।। यद्यपि भरत घोड़ोंसे समृद्ध है पर अतिवीयं हाथियोंसे समृद्ध है अत: जिस प्रकार सिंह विन्ध्याचलका कुछ नहीं कर सकता उसी प्रकार भरत भी अतिवीर्यका कुछ नहीं कर सकता ॥७७॥ वह भरतको जीत लेगा इसमें कुछ भी संशय नहीं है अथवा दो में से किसीकी जीत होगी पर उससे प्राणियोंका विनाश तो होगा ही ॥७८॥ जब बिना कारण ही दो व्यक्तियोंमें परस्पर विरोध होता है तब दोनों पक्षके मनुष्योंका विवश होकर क्षय होता ही है ॥७९॥ और यदि दुष्ट अतिवीयंने भरतको वश कर लिया तो फिर देखो रघुवंशका कैसा अपयश उत्पन्न होता है ? ॥८॥ इस विषयमें सन्धि भी होती नहीं दिखती क्योंकि मानी शत्रुघ्नने लड़कपनके कारण अत्यन्त उद्धत शत्रुके बहुत दोषअपराध किये हैं सुनो, रौद्रभूतिके साथ मिलकर शत्रुघ्नने अन्धेरी रातमें छापा मार-मारकर उसके बहुत-से निद्रानिमग्न वीरोंको तथा जिनपर चढ़ना कठिन था और जिनसे मदके निर्झर झर रहे थे ऐसे बहुत-से हाथियोंको मारा। पवनके समान वेगशाली चौंसठ हजार घोड़े और अंजनगिरिके समान आभावाले सात सौ हाथी जो कि इसके नगरके बाहर स्थित थे, तीन दिन तक चुराकर भरतके पास ले गया सो क्या लोगोंके मुंहसे तुमने सुना नहीं हैं? ॥८१-८५॥ १. मृत्युम् । २. शक्योऽस्य । ३. विवशः क्षयम् । ४. लोकमुखात् ।
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