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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व
इतरोऽपि खीकतु साधूनां नोचितो जनः । किमुतायं नरेशानां सहस्राणां प्रपूजितः ॥ १४२ ॥ कुर्वेनं मुक्तकं भद्र भवतायं वशीकृतः । जानानः स्वस्य सामथ्यं क्वानुगच्छति सांप्रतम् ।।१४३।। गृहीत्वा समयेनास्य सन्मानमुपलम्भिताः । विमुच्यन्ते पुनर्भूयो मर्यादेयं चिरन्तनी ॥१४४॥ इत्युक्तो मस्तके कृत्वा करराजीवकुड्मलम् । जगाद लक्ष्मणो देवि यद्ब्रवीषि तथैव तत् ॥ १४५॥ आस्तां स्वामिनि ते वाक्यात्तावदस्य विमोचनम् । सुराणामप्यमुं पूज्यं कुर्वीयं त्वत्प्रसादतः ॥ १४६ ॥ एवं प्रशान्तसंरम्भे सद्यो लक्ष्मीधरे स्थिते । अतिवीर्यो विबुद्धात्मा स्तुत्वा पद्ममभाषत ॥ १४७ ॥ साधु साधु त्वया चित्रं कृतमीदृग्विचेष्टितम् । कदाचिदप्यनुत्पन्ना ममाद्य मतिरुद्गता ॥ १४८ ॥ विमुक्तहारमुकुटं दृष्ट्वा तं करुणान्वितः । विश्रब्धं राघवोऽवोचत् सौम्याकारपरिग्रहः || १४९ || मा वजीरङ्ग दैन्यं त्वं धत्स्व धैर्यं पुरातनम् । महतामेव जायन्ते संपदो विपदन्विताः ।। १५० ।। न चात्र काचिदापत्ते नंद्यावर्ते क्रमागते । भरतस्य वशो भूत्वा कुरु राज्यं यथेप्सितम् ।। १५१|| अतिवीर्यस्ततोऽवोचन्न मे राज्येऽधुना स्पृहा । राज्येन मे फलं दत्तमधुनान्यत्र सज्ज्यते ॥१५२॥ आसीन्मया कृता वांछा हिमवत्सागरावधि । जेतुं वसुन्धरा येन बिभ्रता मानमुत्तमम् ॥१५३॥ सोऽहं स्वमानमुन्मूल्य भूत्वा सारविवर्जितः । कुर्यां प्रणतिमन्यस्य कथं पुरुषतां दधत् ॥ १५४॥ षट्खण्डा 'यैरपि क्षोणी पालितेयं महानरैः । न तृप्तास्तेऽप्यहं ग्रामः पञ्चभिस्तु किमेतकैः ॥ १५५ ॥ जन्मान्तरकृतस्यास्य बलितां पश्य कर्मणः । छायाहानिमहं येन राहुणेन्दुरिवाहृतः ॥१५६॥
जो सज्जन पुरुष हैं उन्हें साधारण मनुष्यको भी दुःखी करना उचित नहीं है फिर यह तो हजारों राजाओंका पूज्य है इसकी बात हो क्या है ? ॥ १४२ ॥ हे भद्र ! इसे आपने वश कर ही लिया है अतः इसे छोड़ दो । अपनी सामर्थ्यको जानता हुआ यह अब कहाँ जायेगा ? ॥१४३॥ प्रबल शत्रुओं को पकड़कर तदनन्तर सन्धिके अनुसार सम्मान कर उन्हें छोड़ दिया जाता है यह चिरकालकी मर्यादा है ॥ १४४॥
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सीता इस प्रकार कहनेपर लक्ष्मणने हस्तकमल जोड़ मस्तकपर लगाते हुए कहा कि हे देवि ! आप जो कह रही हैं वह वैसा ही है ॥ १४५ ॥ हे स्वामिनि, आपकी आज्ञासे इसका छोड़ना तर रहा इसे आपके प्रसादसे ऐसा कर सकता हूँ कि यह देवताओंका भी पूज्य हो जाये ॥ १४६॥ इस प्रकार शीघ्र ही लक्ष्मणके शान्त होनेपर प्रतिबोधको प्राप्त हुआ अतिवीर्यं रामकी स्तुति कर कहने लगा || १४७ || कि आपने जो यह अद्भुत चेष्टा की सो बड़ा भला किया। मेरी जो बुद्धि कभी उत्पन्न नहीं हुई वह आज उत्पन्न हो गयी ॥ १४८ ॥ इतना कह उसने हार और मुकुट उतारकर रख दिये । यह देख सौम्य आकारको धारण करनेवाले दयालु रामने विश्वास दिलाते हुए कहा कि हे भद्र ! तू दीनताको प्राप्त मत हो, पहले जैसा धैर्यं धारण कर, विपत्तियोंसे सहित सम्पदाएँ महापुरुषोंको ही प्राप्त होती हैं ॥१४९ - १५० । अब मुझे कोई आपत्ति नहीं है ! इस क्रमागत नन्द्यावर्तनगरमें भरतका आज्ञाकारी होकर इच्छानुसार राज्य कर ॥ १५१ ॥
तदनन्तर अतिवीर्यंने कहा कि अब मुझे राज्यकी इच्छा नहीं है । राज्यने मुझे फल दे दिया है । अब दूसरे ही अवस्था में लगना चाहता हूँ ॥ १५२ ॥ उत्कट मानको धारण करते हुए मैंने हिमवान्से लेकर समुद्र तककी सारी पृथिवी जीतने की इच्छा की थो सो मैं अपने मानको उखाड़कर निःसार हो गया हूँ अब मैं पुरुषत्वको धारण करता हुआ अन्यको नमस्कार कैसे कर सकता हूँ ? ।। १५३ - १५४ ।। जिन महापुरुषोंने इस छहखण्डकी रक्षा की है वे भी सन्तोषको प्राप्त नहीं हुए फिर इन पांच गांवोंसे कैसे सन्तुष्ट हो सकता हूँ ? ॥१५५॥ जन्मान्तर में किये हुए इस कर्मकी बलवत्ता
१. इतरो ये म. । २. नन्द्यावर्ते क्रमागते म., नन्द्यावर्तकमागते ख. ।
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