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पद्मपुराणे लयान्तरवशोकम्पिमनोज्ञस्तनमण्डला । निशब्दचरणाम्भोजविन्यासा चलितोरुका ॥५५।। गीतानुगमसंपन्नसमस्ताङ्गविचेष्टिता। 'मन्दरे श्रीरिवानृत्यजानकी भक्तिचोदिता ॥५६।। उपसर्गादिव अस्ते यातेऽस्तं भास्करे ततः। सन्ध्यायां चानुमार्गेण यातायां चलतेजसि ॥५७॥ नक्षत्रमण्डलालोक निघ्नन् नीलाभ्रसंनिमम् । व्याप्नुवानं दिशः सर्वा गहनं ध्वान्तमुद्गतम् ॥५८॥ जनस्याश्रावि कस्यापि दिक्ष संक्षोभणं परम् । साराविणं तथा चित्रं मिन्दानमिव पुष्करम् ।।५।। विद्युज्ज्वालामुखैलम्बैरम्बुदैव्याप्तमम्बरम् । क्वापि यात इवाशेषो लोकस्वाससमाकुलः ।।६०॥ अलंप्रतिभयाकारा दंष्ट्रालीकुटिलाननाः । अट्टाहासान् महारौद्रान् भूतानां ससृजुर्गणाः ।।६।। क्रव्यादा विरसं रेसुः सानलं चाशिवाः शिवाः । सस्वनुर्ननृतुर्भामं कलेवरशतानि च ॥६२॥ मू?रोभुजजङ्घादीन्यङ्गानि ववृषुर्घनाः । दुर्गन्धिभिः समेतानि स्थूलशोणितबिन्दुमिः ॥६३॥ करवालीकरा फरविग्रहा दोलितस्तनी । लम्बोष्टी डाकिनी नग्ना दृश्यमानास्थिसंचया ॥६४॥ मांसखण्डाममग्नाक्षी शिरोघटितशेखरा । ललाटप्रसरोजिह्वा पेशीशोणितवर्षिणी ॥६५॥ सिंहव्याघ्रमुखैस्तप्तलोह चक्रामलोचनैः । शूलहस्तैर्विदष्टौष्ठै कुटिकुटिलालकैः ॥६६॥ राक्षसैः परुषाराचैर्नृत्यद्भिरतिसंकुलम् । कम्पिताद्रिशिलाजालं चुक्षोम वसुधातलम् ॥६७॥
चरण-कमलोंका विन्यास शब्द रहित था; जिसकी एक जांघ चल रही थी। जिसके शरीरकी समस्त चेष्टाएँ संगीत शास्त्रके अनुरूप थीं, तथा जो भक्तिसे प्रेरित थी, ऐसी सीताने उस प्रकार नृत्य किया जिस प्रकार कि जिनेन्द्रके जन्माभिषेकके समय सुमेरु पर श्री देवीने किया था ॥५३-५६।। तदनन्तर उपसर्गसे त्रस्त होकर ही मानो जब सूर्य अस्त हो गया और उसीके पीछे चंचल तेजको धारण करनेवाली संध्या भी जब चली गयी तब नक्षत्र मण्डलके प्रकाशको नष्ट करनेवाला तथा नील मेघके समान आभावाला सघन अन्धकार समस्त दिशाओंको व्याप्त करता हुआ उदित हुआ ॥५७-५८॥ उसी समय किसोका ऐसा विचित्र शब्द सुनाई दिया जो दिशाओंमें परम क्षोभ उत्पन्न करनेवाला था तथा जो आकाशको भेदन करता हुआ-सा जान पड़ता था ॥५९॥ जिसके अग्रभागमें विजलीरूपी ज्वाला प्रकाशमान थी, ऐसी लम्बी धन-घटासे आकाश व्याप्त हो गया और लोक ऐसा जान पड़ने लगा मानो भयसे व्याकुल हो कहीं चला ही गया हो ॥६०॥ जिनके आकार अत्यन्त भय उत्पन्न करनेवाले थे तथा जिनके मुख दाढ़ोंको पंक्तिसे कुटिल थे, ऐसे भूतोंके झुण्ड महा भयंकर अट्टहास करने लगे ॥६१॥ राक्षस नीरस शब्द करने लगे, अमंगल रूप शृगालियां अग्नि उगलती हुई शब्द करने लगों, सैकड़ों कलेवर भयंकर नृत्य करने लगे, ॥६२।। मेघ, दुर्गन्धित खूनकी बड़ी मोटी बूंदोंसे सहित मस्तक, वक्षःस्थल, भुजा तथा जंघा आदि अवयवोंकी वर्षा करने लगे ॥६३।। जो हाथमें तलवार लिये थी जिसका शरीर अत्यन्त क्रूर था, जिसके स्तन हिल रहे थे, जिसके ओठ अत्यन्त लम्बे थे, जो नग्न थी, जिसकी हड़ियोंका समूह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था, जिसकी फूटी आंखें मांसखण्डके समान थी, जिसने नरमुण्डका सेहरा पहिन रखा था, जिसकी जीभ ऊपरकी ओर उठकर ललाटका स्पर्श कर रही थी तथा जो मांस और रुधिरकी वर्षा कर रही थी ऐसी डाकिनी दिखाई देने लगी॥६४-६५॥ जिनके मुख सिंह तथा व्याघ्रके समान. थे, जिनके नेत्र तपे हुए लोह चक्रके सदृश थे, जिनके हाथमें शूल विद्यमान थे, जो ओंठको डश रहे थे, जिनके ललाट भौंहोंसे कुटिल थे, जिनकी आवाज अत्यन्त कठोर थी, तथा जो नृत्य कर रहे थे ऐसे राक्षसोंसे भरा हुआ वहांका भूतल
१. सुमेरुपर्वते, मन्दिरे ख., ज., म.। २. निघ्नलीलाभ्रसंभ्रमं, म.। ३. भिन्दन्तमिव म.। ४. आकाशम् । ५. इवाशेष आलोकस्वासमाकुल म.। ६. अमंगलभूताः । शृगाल्यः ।
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