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एकोनचत्वारिंशत्तमं पवं
अन्यदा प्रथितः क्षोण्यां गणेशो मतिवर्धनः । विहरन् पद्मिनीं प्राप श्रमणः सुमहातपाः ॥ ९५ ॥ अनुद्धरेति विख्याता धर्म्यध्यानपरायणा । महत्तरा तदा चासीदार्यिका गणपालिनी ॥९६॥ वसन्ततिलकाभिख्ये तत्रोद्याने सुसुन्दरे । संघेन सहितस्तस्थौ चतुर्भेदेन सद्भुवि ॥९७॥ अधोद्यानस्य संभ्रान्ताः पालकाः किङ्करा भृशम् । नृपं व्यज्ञापयन्नेवं भूमिविन्यस्तपाणयः ॥ ९८ ॥ अग्रतो भृगुरत्युग्रः शार्दूलः पृष्ठतो नृप । वद कं शरणं यामो नाशो नः सर्वथोदितः ॥९९॥
किं किमिति थेत्युक्ता नृपतिनागदन् । नाथोद्यानभुवं प्राप्य श्रमणानां गणः स्थितः ॥ १०० ॥ यद्येनं वारयामोऽतः शापं ध्रुवमवाप्नुमः । न चेत्ते जायते कोप इति नः संकटो महान् ॥ १०१ ॥ कल्पोद्यानसमच्छायमुद्यानं ते प्रसादतः । नरेन्द्रकृतमस्माभिरप्रवेश्यं पृथग्जनैः ॥१०२॥ नैव वारथितुं शक्त्यास्तपस्तेजोऽतिदुर्गमाः । त्रिदशैरपि दिग्वस्त्राः किमुतास्मादृशैर्जनैः ॥ १०३ ॥ माभैष्ट ततो राजा कृत्वा किङ्करसान्त्वनम् । उद्यानं प्रस्थितो युक्तो विस्मयेनातिभूरिणा ॥ १०४ ॥ ऋद्धया च परया युक्तो वन्दिभिः कृतनिस्वनः । उद्यानभुवमासीदत् प्रतापप्रकटः क्षितीट् ॥ १०५ ॥ ददर्श च महाभागान् वनरेणुसमुक्षितान् । मुक्तियोग्यक्रियायुक्तान् प्रशान्तहृदयान् मुनीन् ॥ १०६ ॥ प्रतिमावस्थितान् कांश्चित् प्रलम्बितभुजद्वयान् । षष्टाष्टमादिभिस्तीवरुपवासैर्विशोषितान् ॥१०७॥
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अथानन्तर किसी समय मुनिसंघ के स्वामी मतिवर्धन नामक महातपस्वी आचार्यं पृथिवीपर विहार करते हुए पद्मिनी नगरी आये ॥ ९५ ॥ उसी समय धर्मंध्यानमें तत्पर रहनेवाली, अतिशय श्रेष्ठ और आर्यिकाओंके संघकी रक्षा करनेवाली अनुद्धरा नामकी गणिनी भी विद्यमान थीं ॥ ९६ ॥ चतुर्विध संघसे सहित मतिवर्धन आचार्य वहाँ आकर उत्तम भूमिसे युक्त वसन्ततिलक नामक उद्यानमें ठहर गये ॥९७॥
तदनन्तर उद्यानकी रक्षा करनेवाले किंकर अत्यन्त व्यग्र हो राजाके पास पहुँचे और पृथ्वीपर हाथ रखकर इस प्रकार प्रार्थना करने लगे कि हे नाथ! आगे तो बड़ी ऊँची ढालू चट्टान है और पीछे व्याघ्र है बताइए हम किसकी शरणमें जावें । हमारा तो सब प्रकारसे विनाश उपस्थित हुआ है ।।९८-९९ || 'भले आदमियो ! क्या ? क्या ??, क्या कह रहे हो' इस प्रकार राजाके कहनेपर किंकरोंने कहा कि हे नाथ! मुनियोंका एक संघ उद्यानकी भूमिमें आकर ठहर गया है ॥१००॥ यदि इस संघको हम मना करते हैं तो निश्चित ही शापको प्राप्त होते हैं और यदि नहीं मना करते हैं तो आपको क्रोध उत्पन्न होता है, इस प्रकार हम लोगों पर बड़ा संकट आ पड़ा है ॥ १०१ ॥ । हे राजन् ! आपके प्रसादसे हम लोगोंने वह उद्यान कल्पवृक्षोंके उद्यानके समान बना रखा है, उसमें साधारण-पामर मनुष्य प्रवेश नहीं कर सकते || १०२॥ जो तपके तेजसे अत्यन्त दुर्गम हैं ऐसे निर्ग्रन्थ मुनियोंको देव भी रोकनेमें समर्थ नहीं हैं फिर हमारे जैसे मनुष्योंकी बात ही क्या है ? ॥१०३॥
तदनन्तर 'भयभीत मत होओ' इस प्रकार किंकरोंको सान्त्वना देकर बहुत भारी आश्चयंसे युक्त हुआ राजा उद्यानकी ओर चला || १०४ || जो बहुत भारी सम्पदासे युक्त था, बन्दीजन जिसकी स्तुति करते जाते थे, तथा जो अतिशय प्रतापी था, ऐसा राजा चलकर उद्यानभूमिमें पहुँचा ॥ १०५ ॥ वहाँ जाकर उसने महाभाग्यवान् मुनियोंके दर्शन किये। वे मुनि वनकी धूलिसे व्याप्त थे, मुक्ति के योग्य क्रियाओंमें तत्पर थे तथा अत्यन्त प्रशान्त चित्त थे ॥ १०६ ॥ उनमें से कितने ही मुनि दोनों भुजाओंको नीचेकी ओर लटकाकर प्रतिमाके समान अवस्थित थे, तथा वेला-तेला आदि कठिन उपवासोंसे उनके शरीर शुष्क हो रहे थे ॥ १०७॥
१. ब्रूतेत्युक्त्वा नृपतिनागदं म । २. पामरजनैः । पृथुस्तनैः (?) म.
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