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पद्मपुराणे साकं विमलया देव्या श्रीमान् क्षेमकरो नृपः । चिरं जयति यस्यैतौ तनयौ त्रिदशोपमौ ॥१६७॥ वातायनस्थितैषापि कन्यका कमलोत्सवा । जयति भ्रातरावेतो यस्याश्चारुगुणोत्कटी ॥१६८॥ ततस्तौ तगिरो ज्ञात्वा सोदरैषावयोरिति । वैराग्यं परमं प्राप्ताविति चिन्तामुपागतौ ॥१६९॥ धिधिधिगिदमत्यन्तं पापमस्माभिरीहितम् । अहो मोहस्य दारुण्यं सोदरा येन कातिता ॥१७॥ चिन्तयित्वा प्रमादेन दुःखमस्माकमीदृशम् । कुर्वन्ति ये सदा काय तेषां त्वत्यन्तसाहसम् ॥३७१॥ असारोऽयमहोऽत्यन्तं संसारो दुःखपूरितः । तत्र नामेदृशा मावा जायन्ते पापकर्मणाम् ॥१७२॥ कुतोऽप्यपुण्यतः क्षिप्रं चेतनो नरकं ब्रजेत् । संप्राप्य बोधमस्माभि सद्वृत्तं चित्रमुत्तमम् ॥ १७३॥ इति संचिन्त्य सन्त्यज्य मातरं दुःखमूछिताम् । स्नेहाकुलं च पितरं दीक्षां देग्वालेसीं श्रिती ॥१७४॥ नभोविहरणी लब्धि प्राप्य तौ सुतपोधनौ । आंहिषातां जगन्नानाजिनतीर्थाभिपूजितम् ॥३७५॥ क्षेमकरनरेशस्तु तच्छोकानलदीपितः । युगपत्सकलं त्यक्त्वाऽऽहारं पञ्चत्वमागतः ॥१७६॥ भवादारभ्य पूर्वोक्तात् स एव हि पितावयोः । तेन नौ प्रति वात्सल्यं तस्य नित्यमनुत्तमम् ॥१७७॥ गरुडाधिपतिश्चासौ जातः ख्यातो मरुत्वतः । सुन्दरोऽद्भुतविक्रान्तो महालोचनसंज्ञकः ॥१७८॥ क्षुब्धः स्वासनकम्पेन प्रयुज्यावधिमूर्जितः । आगतोऽयं स्थितो माति व्यन्तरामरसंसदि ॥१७९।। अनुन्धरस्तु विहरंस्तापसाचारतत्परः । कौमुदीनगरी यातः शिष्यसंघेन वेष्टितः ॥१८॥ नरेशः सुमुखस्तत्र रतवत्यस्य भामिनी । कान्ता शतप्रधानत्वं प्राप्ता परमसुन्दरी ॥१८॥
तदनन्तर वन्दीके मुखसे उसी समय यह शब्द निकला ॥१२६।। कि विमला देवीके साथ वह राजा क्षेमंकर सदा जयवन्त रहे जिसके कि देवोंके समान ये दो पुत्र हैं ॥१६७।। तथा झरोखेमें बैठी यह कमलोत्सवा नामकी कन्या भी धन्य है जिसके कि सुन्दर गुणोंसे उत्कट ये दो भाई हैं ॥१६८|| तदनन्तर वन्दीके कहनेसे 'यह हमारी बहन है' ऐसा जानकर परम वैराग्यको प्राप्त हुए दोनों भाई इस प्रकार विचार करने लगे कि ॥१६९॥ अहो! हम लोगोंके द्वारा इच्छित इस भारी पापको धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है । अहो ! मोहको दारुणता देखो कि जिससे हमने बहन ही की इच्छा की ।।१७०॥ हम लोग तो प्रमादसे ही ऐसा विचार कर दुःखी हो रहे हैं फिर जो जानबूझकर सदा ऐसा कार्य करते हैं उनका तो बहुत भारी साहस ही कहना चाहिए ॥१७१॥ अहो! दुःखसे भरा यह संसार बिलकुल ही असार है जिसमें पापो मनुष्योंके ऐसे विचार उत्पन्न होते हैं ॥१७२।। किसी पापके उदयसे सहसा कार्य करनेवाला प्राणी नरक जा सकता है, पर हम लोग तो सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको पाकर भी नरक जाना चाहते हैं, यह बड़ा आश्चर्य है ।।१७३।। ऐसा विचारकर दुःखसे मूच्छित माता और स्नेहसे आकुल पिताको छोड़कर दोनोंने दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली ।।१७४।। उत्तम तपरूपी धनको धारण करनेवाले दोनों मुनियोंने आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त कर जगत्के नाना तीर्थ क्षेत्रोंमें विहार किया ॥१७५।। राजा क्षेमंकर उस शोकाग्निसे दग्ध होकर एक साथ समस्त आहार छोड़ मृत्युको प्राप्त हुआ ।।१७६।। राजा क्षेमंकर पहले कहे हुए भवसे ही लेकर हम दोनोंका पिता होता आया है इसलिए हम दोनोंके प्रति उसका निरन्तर भारी स्नेह रहता था ॥१७७।। अब वह मरकर भवनवासी देवोंमें सुपर्ण कुमार जातिके देवोंका अधिपति, 'प्रसिद्ध, सुन्दर, अद्भुत-पराक्रमका धारी महालोचन नामका देव हुआ है ।।१७८॥ वह बली अपने
आसनके कम्पित होनेसे क्षुभित हो अवधिज्ञानके द्वारा सब जानकर यहाँ आपा है तथा व्यन्तर देवोंकी सभामें बैठा है ॥१७९।। उधर तपस्वियोंका आचार पालन करने में तत्पर अनुन्धर, शिष्य समूहके साथ विहार करता हुआ कौमुदी नगरीमें आया ।।१८०॥ वहाँका राजा सुमुख था और ' १. -भिः सद्वृत्तश्चित्तमुत्तमम् म. । २. दैगम्बरीम् । ३. जगन्मान्याजिनतीर्थाभिपूजिताम् म. । ४. हारे म. । ५. मृत्युम् । ६. सर्वदारभ्य म.।
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