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पापुराणे इति गत्यागतीः श्रुत्वा प्राणिनां वैरकारिणाम् । वैरानुबन्धमुत्सृज्य स्वस्था भवत जन्तवः ॥२२६॥ महापूतमिति श्रुत्वा वचनं केवलीरितम् । मुहुः सुरासुरा नेमुस्तं भीता भवदुःखतः ॥२२७।। तावच्च गरुडाधीशः परमं संपदं श्रितः । नत्वा केवलिनः पादौ शयकार्पितालिकः ॥२२८॥ ऊचे रघुकुलोद्योतं विलसम्मणिकुण्डलम् । स्निग्धा प्रसारयन् दृष्टिं प्रेमतर्पितमानसः ॥२२९॥ प्रातिहार्य कृतं येन त्वया मत्सुतयोः परम् । ततस्तुष्टोऽस्मि याचस्व वस्तु यत्तेऽभिरोचते ॥२३०॥ क्षणं चिन्तागतः स्थित्वा जगाद रघुनन्दनः । त्वयासुरप्रसन्नेन स्मर्तव्या वयमापदि ॥२३॥ साधुसेवाप्रसादेन फलमेतदुपागतम् । अङ्गीकर्तव्यमस्माभिर्भवद्वारविनिर्गतम् ॥२३२॥ एवमस्त्विति तेनोक्ते दध्मुः शङ्खान दिवौकसः । मेर्य मेघनिनदाः सानुवाद्याः समाहताः ॥२३३।। साधुपूर्वमवं श्रुत्वा संवेगं परमं श्रिताः । प्रावव्रजुर्जनाः केचिदन्येऽणुन तमाश्रिताः १२३४॥
- इन्दुवदनावृत्तम् देशकुलभूषणमुनो नु जगदच्यौं सर्वभवदुःखमल संगमविमुसी। ग्रामपुरपर्वतमटम्बपरिरम्यान् बभ्रमतुरुत्तमगुणरुपचिन्तागान् ॥२३५।। देशकुलभूषणमहामुनिम ये वृत्तमतिपूतमिदमत्कटसुभावाः ।
त्रवचसोर्विषयतामुपनयन्ते ते रविनिभा दुरितमाशु विसृजन्ति ॥२३६॥ इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते देशकुलभूषणोपाख्यानं नामैकोनचत्वारिंशत्तम पर्व ॥३९॥
गति-आगतिको सुनकर हे प्राणियो! परस्परका वैर छोड़ स्वस्थ होओ अर्थात् आत्मस्वरूपमें लीन होओ ॥२२६।। इस प्रकार केवली भगवान्के द्वारा उच्चरित महापवित्र वचन सुनकर संसारके दुःखोंसे भयभीत हुए सुर और असुरोंने उन्हें बार-बार नमस्कार किया ।।२२७||
इतने में ही परम ऐश्वर्यको प्राप्त सुवर्ण कुमारोके पतिने हाथ जोड़कर मस्तकसे लगा केवली गवान्के चरणकमलमें नमस्कार कर देदीप्यमान मणिमय कुण्डलोंके धारक रामसे कहा। उस समय वह गरुडेन्द्र रामकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि डाल रहा था तथा प्रेमसे उसका मन सन्तुष्ट हो रहा था ॥२२८-२२९।। उसने कहा कि चूंकि तुमने हमारे पुत्रोंकी परम सेवा की है इसलिए मैं तुमपर प्रसन्न हूँ तुम्हें जो वस्तु रुचती हो वह मांग लो ॥२३०॥ राम क्षण-भर चिन्ता करते हुए चुपचाप बैठे रहे। तदनन्तर बोले कि हे देव ! यदि प्रसन्न हो तो आपत्तिके समय हम लोगोंका स्मरण रखना ॥२३१।। साधुसेवाके प्रसादसे ही यह प्राप्त हुआ कि आप-जैसे सत्पुरुषोंके साथ मिलाप हुआ तथा संसारके द्वारसे निकलनेका मार्ग मिला ॥२३२॥ ऐसा ही हो' इस प्रकार गरुडेन्द्र के कहनेपर देवोंने शंख फूंके तथा अनेक प्रकारके वादित्रोंके साथ मेघोंके समान शब्द करनेवाली भेरियाँ बजायीं ॥२३३।। मुनियोंके पूर्वभव सुनकर परम संवेगको प्रात हुए कितने ही लोगोंने दीक्षा धारण कर ली और कितने ही लोग अणुव्रतोंके धारी हुए ॥२३४॥ जगत्के द्वारा पूजनीय तथा संसारके समस्त दुःखरूपी मलके समागमसे रहित देशभूषण, कुलभूषण केवली उत्तम गुणोंसे युक्त ग्राम, पुर, पर्वत तथा मटम्ब आदि रमणीय स्थानोंमें विहार कर धर्मका उपदेश देने लगे ॥२३५।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जो देशभूषण, कुलभूषण, महामुनियोंके इस अतिशय पवित्र चरित्रको उत्तम भावोंसे युक्त हो सुनते हैं तथा कथन कर दूसरोंको सुनाते हैं वे सूर्यके समान देदीप्यमान होकर शीघ्र ही पापोंका त्याग करते हैं ।।२३६।।
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध, रविणाचार्य कथित पद्मचरितमें देशभूषण, कुलभूषण
केवलीका व्याख्यान करनेवाला उनतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥३९॥
१. हस्तकमलापितभालः । २. भेर्यश्व म. । ३. श्रोतवचसो म. ।
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