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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
१८९ राज्ञोऽन्यस्य सुता नाम्ना श्रीप्रभा श्रीप्रभव सा । लब्धा रत्नरथेनेष्टा कनकामाङ्गजेन च ॥१५३॥ लब्धा रत्नरथेनैषा ततो द्वेषमुपागतः । अनुन्धरो महीं तस्य विनाशयितुमुद्यतः ॥१५॥ ततो रत्नरथेनासौ विचित्रस्यन्दनेन च । निर्जित्य समरे पञ्च दण्डान् प्राप्य निराकृतः ।।१५५॥ खलीकारात्ततः पूर्वजन्मवैराच्च कोपतः । जटावल्कलधारी स तापसोऽभूद् विषाधिवत् ॥१५६॥ भुक्त्वा राज्यं चिरं कालं सोदरौ तु प्रबोधिनौ। प्रव्रज्य सुतपः कृत्वा स्वर्गलोकमुपागतौ ॥१५७॥ तौ महातेजसौ तत्र सुखं प्राप्य सुरोचितम् । च्युतौ सिद्धार्थनगरे क्षेमङ्करमहीभृतः ॥१५॥ उत्पन्नौ विमलाख्यायां महादेव्यां सुसुन्दरौ । देशभूषण इत्याद्यो द्वितीयः कुलभूषणः ॥१५९॥ विद्यार्जनोचितौ तौ च क्रीडन्तौ तिष्ठती गृहे । नाम्ना सागरघोषश्च विद्वान् भ्राम्यन्नुपागतः ॥१६०॥ राज्ञा च संगृहीतस्य तस्य पार्श्वेऽखिलाः कलाः । शिक्षितौ तावुदारेण विनयेन समन्वितौ ॥१६॥ 'स्वजनं नैव तौ कंचिजानीतस्तद्गतात्मको । कर्तव्यं हि तयोः सर्व विद्याशालागतं तदा ॥१६२॥ उपाध्यायेन चानीतौ सुचिरात् पितुरन्तिकम् । दृष्टा योग्यौ नरेन्द्रण यथाकाम स पूजितः ॥१६३॥ आवयोः किल दारार्थ पित्रा सामन्तकन्यकाः। आनायिता इति श्रोत्रपथं वार्ता तयोर्गता ॥१६॥ ततस्तौ परया इत्या बाह्याली गन्तुमबतौ । वातायनस्थितां कन्यां पुरशोमामपश्यताम् ॥१६५॥ तत्संगमार्थमन्योन्यं मानसेऽकुरुतां वधम् । ततश्च वन्दिनो वक्त्रादिति शब्दः समुत्थितः ॥१६६॥
छोड़ जिनालयमें छह दिनकी उत्तम सल्लेखना धारण कर स्वर्ग गया ॥१५२॥ अथानन्तर एक राजाकी पुत्री श्रीप्रभा जो कि यथार्थमें श्रीप्रभा अर्थात् लक्ष्मीके समात प्रभाकी धारक थी, रत्नरथने उससे विवाह कर लिया। इसी पुत्रीको कांचनाभाका पुत्र अनुन्धर भी चाहता था। वह द्वेष रखकर उसकी भूमिको उजाड़ करनेके लिए उद्यत हो गया ॥१५३-१५४॥ तब रत्नरथ और विचित्ररथने उसे युद्ध में जीतकर तथा पांच प्रकारके दण्ड देकर देशसे निकाल दिया ।।१५५।। अनुन्धर इस अपमानसे तथा पूर्वभव सम्बन्धी बरसे कुपित होकर जटा और बल्कलको धारण करनेवाला विषवृक्षके समान तापसी हो गया ॥१५६||
- इधर रत्नरथ और विचित्ररथ दोनों भाई चिरकाल तक राज्य भोगकर प्रबोधको प्राप्त हए सो दीक्षा ले उत्तम तप धारण कर स्वर्ग लोकमें उत्पन्न हुए ॥१५७॥ महातेजको धारण करनेवाले दोनों भाई वहाँ देवोंके योग्य उत्तम सुख भोगकर वहांसे च्युत हुए और सिद्धार्थ नगरके राजा क्षेमंकरकी विमला नामक महादेवीके दो सुन्दर पुत्र हुए। प्रथम पुत्रका नाम देशभूषण और दूसरे पुत्रका नाम कुलभूषण था ॥१५८-१५९।। विद्या उपार्जन करनेकी योग्य अवस्थामें वर्तमान दोनों भाई घरपर क्रीड़ा करते रहते थे। एक दिन भ्रमण करता हुआ एक सागरसेन नामका महाविद्वान् वहां आया, सो राजाने उसे रख लिया। उत्कृष्ट विनयसे युक्त दोनों भाइयोंने उस विद्वान्के पास समस्त कलाएं सीखीं ॥१६०-१६१।। दोनों पुत्रोंका विद्यामें इतना चित्त लगा कि वे अपने परिवारके लोगोंको भी नहीं जानते थे। यथार्थमें उनका सम्पूर्ण चित्त विद्या और विद्यालयमें ही लगा रहता था ॥१६२।। उपाध्याय चिरकालके बाद पूत्रोंको निपूण बनाकर पिताके पास ले गया सो पिताने पुत्रोंको योग्य देख उपाध्यायका यथायोग्य सम्मान किया ॥१६३।। तदनन्तर पिताने हम दोनोंके विवाहके लिए राज-कन्याएँ बुलवायी हैं यह समाचार उनके कर्णमार्ग तक पहुँचा ॥१६४॥
तदनन्तर परम कान्तिसे युक्त दोनों भाई एक दिन नगरके बाहर जानेके लिए उद्यत हुए सो उन्होंने झरोखेमें बैठी नगरकी शोभास्वरूप एक कन्या देखी ॥१६५॥ उस कन्याका समागम प्राप्त करनेके लिए दोनों ही भाइयोंने अपने मनमें परस्पर एक दूसरेके वध करनेका विचार किया।
१. स्वजनेनैव म. । २. विद्याशीलागतं ब. । विद्याशालगतं म.।
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