________________
१८८
पपपुराणे केवल्या स्यात् समुद्भूता भारतीति भवान्तरे । सुरपः कर्षकश्चास्तां यक्षस्थाने सहोदरौ ॥१३७॥ लुब्धकेनाहृतो जीवः शकुन्ति ममन्यदा । ताभ्यां कारुण्ययुक्ताभ्यां दत्वा मूल्यं विमोचितः ॥१३८॥ ततोऽसौ शकुनो मृत्वा बभूव म्लेच्छमपतिः । सुरपः कर्षकश्चैतावुदितो मुदितस्तथा ॥१३९।। पक्षीमवनसौ यस्मादेताभ्यां रक्षितं पुरा । तस्मात् सेनापतिभूयो ररक्षासाविमौ मुनी ॥१४०॥ 'लुब्धको जीवमोक्षेण वसुभतिर्द्विजोत्तमः । संजातो कर्मयोगेन मनुष्यभवमुत्तमम् ॥१४१॥ यद्यथा निर्मितं पूर्व तद्योग्यं जायतेऽधुना । संसारवाससक्तानां जीवानां गतिरोदृशी ॥१४२॥ किमधीतैरिहानथं ग्रन्धरौशनसादिमिः । एकमेव हि कर्तव्यं सुकृतं सुखकारणम् ॥१३॥ निःसृतावुपसर्गात्तौ मुनी कर्मानुभावतः । निर्वाणसदनं प्राप्तावकाष्टां जिनवन्दनाम् ॥१४॥ एवं तौ चारुधामानि पर्यट्य समयं चिरम् । रत्नत्रयं समाराध्य मृत्वा स्वर्गमुपागतौ ।।१४५॥ निन्धयोनिषु पर्यट्य वसुमतिः सुकृच्छ्रतः । मनुष्यत्वं समासाद्य तापसव्रतमाश्रितः ।।१४६॥ कृत्वा बालतपः कष्टं कालधर्मेण संगतः । अग्निकेतुरिति ख्यातः करो ज्योतिःसुरोऽभवत् ॥१७॥ तथास्ति भरतक्षेत्रे नाम्नारिष्टमहापुरम् । प्रियव्रत इति ख्यातः पुरुमोगोऽत्र पार्थिवः ॥१४८॥ महादेव्यावुभे तस्य योषिद्गुणसमन्विते । काञ्चनाभा प्रसिद्धका पद्मावत्यपरोदिता ।।१४९।। च्युती तो सुन्दरी नाकाजातो पद्मावतोसती । नाम्ना रत्नरथोऽन्यश्च विचित्ररथसंज्ञकः ।।१५।। उत्पन्न: कनकाभायां ज्योतिदेवः परिच्युतः । अनुन्धर इति ख्यातिं गुणस्ते चावनिं गताः ॥१५॥ राज्यं पुत्रेषु निक्षिप्य षड्दिनानि जिनालये । कृतसंलेखनः सम्यक् स्वर्ग यातः प्रियव्रतः ।।१५२॥
चाहता था और सेनापतिने किस कारणसे छुड़ाकर इनकी रक्षा की ॥१३६॥ तब केवली भगवान्के मुखसे इस प्रकारकी दिव्यध्वनि प्रकट हुई कि भवान्तरमें यक्षस्थान नामक नगरमें सुरप और कर्षक नामके दो भाई रहते थे ॥१३७॥ एक दिन एक शिकारी किसी पक्षीको पकड़कर उस गांवमें आया सो दयासे युक्त होकर सुरप और कर्षकने मूल्य देकर उसे छुड़ा दिया ॥१३८॥ तदनन्तर वह पक्षी मरकर म्लेच्छ राजा हुआ और सुरप तथा कषंक मरकर उदित तथा मुदित हुए ॥१३९।। चूंकि पक्षी अवस्थामें इन दोनोंने पहले इसकी रक्षा की थी इसलिए पक्षीने भो सेनापति होकर इन दोनों मुनियोंकी रक्षा की ॥१४०॥ शिकारीका जाव मरकर कर्मयोगसे उत्तम मनुष्य पर्याय पाकर वसुभूति नामका ब्राह्मण हुआ ।।१४१।। यह जीव पूर्व भवमें जैसा करता है इस भवमें उसके अनुरूप ही उत्पन्न होता है। संसारी प्राणियोंकी ऐसी ही दशा है ॥१४२॥ यहाँ निरर्थक शक्रादि निर्मित शास्त्रोंके पढ़नेसे क्या होता है ? सुखके कारणभूत एक पुण्यका ही संचय करना चाहिए ॥१४३॥ पुण्यके प्रभावसे उपसर्गसे निकले हुए दोनों मुनियोंने निर्वाण क्षेत्र-सम्मेदाचल पहुँचकर जिनवन्दना की ।।१४४।। इस प्रकार अनेक उत्तमोत्तम स्थानोंमें भ्रमण कर तथा चिरकाल तक रत्नत्रयकी आराधना कर मरकर दोनों मुनि स्वर्ग गये।।१४५।। और वसुभूति अनेक खोटा योनियोमें भ्रमण क बड़ी कठिनाईसे मनुष्यभवको प्राप्त हुआ, सो वहाँ उसने तापसके व्रत धारण किये ।।१४६॥ तदनन्तर दुःखदायी बाल तपकर वह मरा और अग्निकेतु नामका दुष्ट ज्योतिषी देव हुआ॥१४७॥
तदनन्तर इसी भरतक्षेत्रमें एक अरिष्टपुर नामा नगर है जहाँ प्रियव्रत नामका महाभोगवान् राजा राज्य करता था ॥१४८॥ उसकी स्त्रियोंके गुणोंसे सहित दो महादेवियाँ थीं एक कांचनामा और दसरी पद्मावती॥१४९॥ उदित और मदितके जीव स्वर्गसे चयकर रानी पद्मावतीके रत्नरथ और विचित्ररथ नामके सुन्दर पुत्र हुए ॥१५०॥ वसुभूतिका जीव जो ज्योतिषी देव हुआ था वह प्रियव्रत राजाकी दूसरी महादेवी कांचनाभाके अनुन्धर नामका पुत्र हुआ। पृथिवीपर आये हुए तीनों पुत्र अपने गुणोंसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए ॥१५१।। राजा प्रियव्रत पुत्रोंके ऊपर राज्य १. केवलिमुखात् । २. अयं श्लोकः क., ख., ज. प्रतिषु नास्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org