________________
१८६
पद्मपुराणे स्वाध्यायनिरतानन्यान् 'षडनिमधुरध्वनीन् । तनिवेशितचेतस्कान् पाणिपादसमाहितान् ॥१०॥ अवलोक्य मुनीनित्थं भेग्नगर्वाङ्कुरोऽभवत् । अवतीर्य गजाद् भावी ननाम जयपर्वतः ॥१०९॥ क्रमेण प्रणमन् साधूनाचार्य समुपागतः । प्रणम्य पादयोरूचे भोगे सद्बुद्धिमुद्वहन् ॥१०॥ नरप्रधानदीप्तिस्ते यथेयं शुभलक्षणा । तथा कथं न ते भोगा रताः पादतलस्थिताः ॥११॥ जगाद मुनिमुख्यस्तं का ते मतिरियं तनौ । स्थास्नुतासंगतालीका संसारपरिवर्धिनी ॥१२॥ करिबालककर्णान्तचपलं ननु जीवितम् । मानुष्यकं च कदलीसारसाम्यं विभर्त्यदः ॥११३॥ स्वप्नप्रतिममैश्वर्य सक्तं च सह बान्धवैः । इति ज्ञात्वा रतिः कात्र चिन्त्यमानातिदुःखदे ॥११॥ नरकप्रतिमे घोरे दुर्गन्धे कृमिसंकुले । रक्तश्लेष्मादिसरसि प्रभूताशुचिकर्दमे ॥११५।। उपितोऽनेकशो जीवो गर्भवासेऽतिसंकटे । तथा न शङ्कते मोहमहाध्वान्तसमावृतः ।।११६॥ धिगत्यन्ताशुचिं देहं सर्वाशुभनिधानकम् । क्षणनश्वरमत्राणं कृतघ्नं मोहपूरितम् ।।११७॥ स्नसाजालकसंश्लिष्टमतिच्छातत्वगावृतम् । अनेकरोगविहतं जरागमजुगुप्सितम् ॥११८॥ एवंधर्मिणि देहेऽस्मिन् ये कुर्वन्ति जना तिम् । तेभ्यश्चैतन्यमुक्तभ्यः स्वस्ति संजायते कथम् ॥११९।। शरीरिसार्थ एतस्मिन् परलोकप्रवासिनि । मष्णन्तः प्रशमं लोकं तिष्ठन्तीन्द्रियदस्यवः ॥१२॥ रमते जीवनृपतिः कुमतिप्रमदावृतः । अवस्कन्देन मृत्युस्तं कदर्ययितुमिच्छति ॥१२॥
कितने ही स्वाध्यायमें तत्पर हो भ्रमरोंके समान' मधुरध्वनिसे गुनगुना रहे थे और कितने ही स्वाध्यायमें चित्त लगाकर पद्मासनसे विराजमान थे ॥१०८॥ इस प्रकारके मुनियोंको देखकर राजाका गर्वरूपी अंकुर भग्न हो गया तथा उसने हाथीसे नीचे उतरकर मुनियोंको नमस्कार किया। राजाका नाम विजयपर्वत था ॥१०९॥ भोगोंमें समीचीन बुद्धिको धारण करनेवाला राजा क्रम-क्रमसे सब मुनियोंको नमस्कार करता हुआ आचार्यके पास पहुंचा और उनके चरणोंमें प्रणाम कर इस प्रकार बोला कि हे नरश्रेष्ठ ! तुम्हारी शुभ लक्षणोंसे युक्त जैसी दीप्ति है वैसे भोग आपके चरणतलमें स्थित क्यों नहीं हैं ?॥११०-१११॥ आचार्यने उत्तर दिया कि तेरे शरीरमें यह क्या बुद्धि है ? तेरी वह बुद्धि शरीरको स्थिर समझनेवाली है सो झूठी है और संसारको बढ़ानेवाली है ॥११२॥ निश्चयसे यह जीवन हस्तिशिशुके कानोंके समान चंचल है तथा मनुष्यका यह जीतव्य केले के सारकी सदृशता धारण करता है ॥११३॥ यह ऐश्वयं और बन्धुजनोंका समागम स्वप्नके समान है, ऐसा जानकर इसमें क्या रति करना है ? इन ऐश्वर्य आदिका ज्यों-ज्यों विचार करो त्यों-त्यों ये अत्यन्त दुःखदायी ही मालूम होते हैं ॥११४॥ जो नरकके समान है, अत्यन्त भयंकर है, दुर्गन्धिसे भरा है, कीड़ोंसे युक्त है, रक्त तथा कफ आदिका मानो सरोवर है, जहाँ अत्यन्त अशुचि पदार्थोंकी कीच मच रही है तथा जो अत्यन्त संकीर्ण है ऐसे गर्भमें इस जीवने अनेकों बार निवास किया है, फिर भी महामोहरूपी अन्धकारसे आवृत हुआ यह प्राणी उससे भयभीत नहीं होता ॥११५-११६। जो सर्व प्रकारके अशुचि पदार्थोंका भाण्डार है, क्षण-भरमें नष्ट हो जानेवाला है, जिसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता, जो कृतघ्न है, मोहसे पूरित है, नसोंके समूहसे वेष्टित है, अत्यन्त पतली चमसे घिरा है, अनेक रोगोंसे खण्डित है, और बुढ़ापाके आगमनसे निन्दित है, ऐसे इस शरीरको धिक्कार है ।।११७-११८॥ जो मनुष्य ऐसे शरीरमें धैर्य धारण करते हैं, चैतन्य अर्थात् विचाराविचारकी शक्तिसे रहित उन मनुष्योंका कल्याण कैसे हो सकता है ? ||११९॥ यह आत्मारूपी बनजारा परलोकके लिए प्रस्थान कर रहा है, सो लोगोंको जबरदस्ती लूटनेवाले ये इन्द्रियरूपी चोर उसे रोककर बैठे हैं ।।१२०॥ यह जीवरूपी राजा कुबुद्धिरूपी स्त्रीसे घिरकर क्रीड़ा कर रहा १. भ्रमरमधुरध्वनीन् । स्वनान् ख., म. । २. रुग्ल-म. । ३. समुपागतं म. । ४. ऐश्वर्ये म. । ५. क्वात्र म. । ६. सतां शुभ-म. । ७. विहितं म., ख. । ८. मुषन्तः म., ज.। ९. अवस्कन्धेन म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org