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पश्मपुराणे भगवन्तौ कृतो नक्तं केनायं वामुपद्रवः । अथवा स्वस्य युवयोरिदं जातं हितं परम् ॥८२॥ त्रिकालगोचरं विश्वं विदन्तावपि तौ समम् । गिरं योमूचतुः (गिरायामूचतुः) साम्यपरिणाममितौ कमात् नगर्या पद्मिनीनाम्नि राजा विजयपर्वतः । गुणसस्योत्तमक्षेत्रं भामिनी यस्य धारिणी ।।८४॥ अमृतस्वरसंज्ञोऽस्य दूतः शास्त्रविशारदः । राजकर्तव्यकुशलो लोकविद् गुणवत्सलः ॥८५॥ उपयोगेति भार्यास्य द्वौ तस्यां कुक्षिसंभवौ । उदितो मुदिताख्यश्च व्यवहारविशारदौ ॥८६॥ असौ दूतोऽन्यदा राज्ञा प्रहितो दूतकर्मणा । प्रवासं सेवितुं सक्तः स्वामिरक्तमतिभृशम् ॥८७॥ वसुभूतिः समं तेन सखा तद्भक्तजीवितः । निर्गतस्तरियासक्तिनिष्ठो दुष्टेन चेतसा ॥८॥ सुप्तं तमसिना हत्या निवृत्तौ नगरी पुनः । जनायावेदयत्तेन किलाहं विनिवर्तितः ॥८९॥ उपयोगा जगादेवं जहि मे तनयावपि । विश्रब्धं येन तिष्ठाव इति वध्वा निवेदितम् ॥१०॥ त्वरितं चोदितायासौ वृत्तान्तो विनिवेदितः । सा हि तेन समं श्वव्याः संगं ज्ञातवती पुरा ॥९॥ ब्राह्मण्या वसुभूतेश्च रतिकार्यसमीय॑या । कथितं तत्तथाभूतं परमाकुलचित्तया ॥१२॥ बभूव चोदितस्यापि संदिग्धं विदितं पुरा । मुदितस्य च खड्गस्य दर्शनात् स्फुटतां गतम् ॥१३॥ ततो रोषपरीतेन हतः संनुदितेन सः । कुद्विजो म्लेच्छतां प्राप करकर्मपरायणः ॥१४॥
मुनियोंको नमस्कारकर रामने हाथ जोड़ इस प्रकार पूछा ।।८१॥ कि हे भगवन् ! रात्रिके समय आप दोनों अथवा अपने ही ऊपर यह उपसर्ग किसने किया था और आप दोनोंमें परस्पर अति स्नेह किस कारण हुआ ? ॥८२॥ यद्यपि दोनों महामुनि त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को एक साथ जानते थे, तो भी साम्यपरिणामको प्राप्त हुए दोनों महामुनि दिव्य ध्वनिमें क्रमसे बोले ॥८३।। उन्होंने कहा कि-पद्मिनी नामा नगरीमें राजा विजयपर्वत रहता था। गुणरूपी धान्यकी उत्पत्तिके लिए उत्तम क्षेत्रके समान उसकी धारिणी नामकी स्त्री थी॥८४॥ राजा विजयपर्वतके एक अमृतस्वर नामका दूत था जो शास्त्रज्ञानमें निपुण था, राजकर्तव्यमें कुशल था, लोकव्यवहारका ज्ञाता तथा गुणोंमें स्नेह करनेवाला था ।।८५।। उसकी उपयोगा नामकी स्त्री थी और उसके उदरसे उत्पन्न हुए उदित तथा मुदित नामके दो पुत्र थे। ये दोनों ही पुत्र व्यवहारमें अत्यन्त कुशल थे ।।८६।। किसी समय राजाने अमृतस्वरको दूत सम्बन्धी कार्यसे बाहर भेजा, सो स्वामीके कार्यमें अत्यन्त अनुरक्त बुद्धिको धारण करनेवाला अमृतस्वर प्रवासके लिए गया ||८७|| उसके साथ उसीके भोजनसे जीवित रहनेवाला वसुभूति नामका मित्र भी गया। वसुभूति अत्यन्त दुष्ट चित्तका था तथा अमृतस्वरकी स्त्रीमें आसक्त था ॥८८॥ वह सोते हुए अमृतस्वरको तलवारसे मारकर नगरीमें वापिस लौट आया और आकर उसने लोगोंको बताया कि अमृतस्वरने मुझे लौटा दिया है ।।८९|| अमृतस्वरकी स्त्री उपयोगाने वसुभूतिसे कहा कि हमारे दोनों पुत्रोंको भी मार डालो जिससे फिर हम दोनों निश्चिन्ततासे रह सकेंगे। सासका यह कहना उसकी बहने जान लिया इसलिए उसने यह सब समाचार शीघ्र ही उदितके लिए बता दिया, यथार्थमें वह बहू 'सासका वसुभूतिके साथ संगम है' यह पहलेसे जानती थी ॥९०-९१॥ वसुभूतिको खास स्त्री उसको इस रतिक्रियासे सदा ईष्या रखती थी तथा उसका चित्त अत्यन्त व्याकुल रहता था इसलिए उस यह समाचार उदितकी स्त्रीसे कहा था ॥२२॥ उदितको भी पहलेसे कुछ-कुछ सन्देह था और मुदित भी इस बातको पहलेसे जानता था फिर वसुभूतिके पास तलवार देखनेसे सब बात स्पष्ट हो गयो ॥९३॥ तदनन्तर क्रोधसे युक्त होकर उदितने उसे मार डाला जिससे क्रूरकर्ममें तत्पर रहनेवाला वह कुब्राह्मण म्लेच्छपर्यायको प्राप्त हुआ ।।९।। १. युवयोः ज., क.। २. गिरया। ३. उदितमुदितनामधेयो। ४. छुरिकया। ५. निवृत्तिनगरों म. । ६. श्वव्या म. । ७. मृत्वा च म. ।
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