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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
१८३ विचेष्टितमिदं व्यर्थ नाज्ञासिष्टां महामुनी । तयोहि 'ज्ञानकर्मान्तशुक्लध्यानमयं तदा ॥६॥ तथाविधं तमालोक्य वृत्तान्तं वरभीतिदम् । संहृत्य जानकी नृत्यमाश्लिष्यत्कम्पिनी पतिम् ॥६९॥ पद्मो जगाद तां देवि मा भैषीः शुभमानसे । उपगुह्य मुनेः पादौ तिष्ठ सर्वभयच्छिदौ ॥७०॥ इत्युक्त्वा पादयोः कान्तां मुनेरासाद्य लागली । लक्ष्मीधरकुमारेण साकं सन्नाहमाश्रितः ॥७१॥ सजलाविव जीमूतौ गर्जितौ तौ महाप्रमौ । निर्घातमिव मुञ्चन्तौ समास्फालयतां धनुः ॥७२॥ ततस्तौ संभ्रमी ज्ञात्वा रामनारायणाविति । सुरो वह्निप्रभामिख्यस्तिरोधानमुपेयिवान् ॥७३॥ ज्योतिर्वरे गते तस्मिन् समस्तं तद्विचेष्टितम् । सपदि प्रलयं यातं जातं च विमलं नभः ॥७४।। प्रातिहार्ये कृते ताभ्यामिच्छद्भ्यां परमं हितम् । उत्पन्नं केवलज्ञानं मुनिपुङ्गवयोः क्षणात् ॥७५।। चतुर्विधास्ततो देवा नानायानसमाश्रिताः । समाजग्मुः प्रशंसन्तो मुदितास्तपसः फलम् ॥७६॥ प्रेणम्य विधिना तत्र कृत्वा केवलपूजनम् । रचिताञ्जलयो देवा यथास्थानमुपाविशन् ॥७॥ केवलज्ञानसंभूतिसमाकृष्टसुरागमात् । दोषादिनात्मकौ कालावभूतां भेदवर्जितौ ॥७॥ भूमिगोचरिणो मस्तिथा विद्यामहाबलाः । उपविष्टा यथायोग्यं कृत्वा केवलिनो महम् ॥७९॥ प्रसन्नमानसौ सद्यः कृत्वा केवलिपूजनम् । प्रणम्य सीतया साकं निविष्टौ रामलक्ष्मणौ ॥८॥
अथ तत्क्षणसंभूतपरमार्हासनस्थितौ । प्रणम्य साञ्जलिः पद्मः पप्रच्छैवं महामनी ॥८१॥ क्षोभको प्राप्त हो गया और पर्वतकी चट्टानें हिल उठीं ॥६६-६७॥ यह सब हो रहा था परन्तु उन महामुनियोंको इस व्यर्थकी चेष्टाका कुछ भी भान नहीं था, उस समय उनका ज्ञानोपयोग अन्तरंगमें शुक्लध्यान मय हो रहा था अथवा उन महामुनियोंका ज्ञान कर्मोंका क्षय करनेवाले शुक्लध्यानसे तन्मय हो रहा था ॥६८|| अच्छे-अच्छे पुरुषोंको भय उत्पन्न करनेवाला ऐसा वृत्तान्त देख सीता नृत्य छोड़ कांपती हुई पतिसे लिपट गयी ॥६९।। तब रामने कहा कि हे देवि ! हे शुभ मानसे! भयभीत मत हो ! सब प्रकारका भय दूर करनेवाले मुनियोंके चरणोंका आश्रय ले बैठ जाओ ॥७०।। यह कहकर रामने सीताको मुनिराजके चरणोंके समीप बैठाया और स्वयं लक्ष्मण कुमारके साथ, युद्धके लिए तैयार हो गये ॥७॥ तदनन्तर सजल मेघके समान गरजनेवाले एवं महा कान्तिके धारक राम लक्ष्मणने अपने-अपने धनुष टंकोरे सो ऐसा जान पड़ा मानो वज्र ही छोड़ रहे हों ॥७२॥ तदनन्तर 'ये बलभद्र और नारायण हैं' ऐसा जानकर वह अग्निप्रभ देव घबड़ाकर तिरोहित हो गया ॥७३।। उस ज्योतिषी देवके चले जानेपर उसकी सबको सब चेष्टाएँ तत्काल विलीन हो गयीं और आकाश निर्मल हो गया ॥७४॥
___ अथानन्तर परम हितकी इच्छा करनेवाले राम-लक्ष्मणके द्वारा प्रतिहारीका कार्य सम्पन्न होनेपर अर्थात् उपसर्ग दूर किये जानेपर दोनों मुनियोंकी क्षणभरमें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥७५।। तदनन्तर नाना प्रकारके वाहनोंपर बैठे, हर्षसे भरे तथा तपके फलकी प्रशंसा करते हुए चारों निकायके देव आ पहँचे ॥७६।। वहाँ विधिपूर्वक प्रणामकर तथा केवलज्ञानकी पूजाकर सब देव लोग हाथ जोड़े हुए यथास्थान बैठ गये ।।७७।। उस समय केवलज्ञानको उत्पत्तिसे खिचे हुए देवोंका समागम होनेसे रात-दिन रूप काल भेदसे रहित हो गया अर्थात् वहाँ रात दिनका व्यवहार समाप्त हो गया ॥७८॥ भूमिगोचरी मनुष्य तथा विद्यारूपी महाबलको धारण करनेवाले विद्याधर-सभी लोग केवलियोंकी पूजाकर यथायोग्य स्थानपर बैठ गये ॥७९॥ प्रसन्न चित्तके धारक राम-लक्ष्मण भी सीताके साथ शीघ्र ही केवलियोंकी पूजाकर यथास्थान बैठ गये ॥८॥
__ अथानन्तर तत्क्षण उत्पन्न हुए परमोत्तम सिंहासनोंपर विराजमान केवलज्ञानी महा१. ज्ञानकर्म = इत्यनोत्पादिका क्रिया, अन्तः आभ्यन्तरे इति टिप्पणीपुस्तके । २. इत्युक्त्वा म.। ३. वज्रम् । ४. ज्योतिर्वासम् म. । ५. जातं म., क. । ६. रात्रिदिवसरूपो । ७. पूजाम् ।
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