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एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व
१८१ तथाविधौ च तौ दृष्ट्वा रामोऽपि सहलक्ष्मणः । सहसा त्रासमायातौ भेजे स्तम्भमिव क्षणम् ॥४१॥ वैदेही भयसंपन्ना भर्तारं परिषस्वजे । मा भैषीरिति तामूचे मयं त्यक्त्वा क्षणेन सः ॥४२॥ उपसृत्य ततः स्वैरं ताभ्यां पन्नगवृश्चिकाः । अत्यस्ता कार्मुकाग्रेण मुहुः कृतविवर्तनाः ॥४३॥ अथोद्वर्त्य चिरं पादौ तयोर्निर्झरवारिणा । गन्धेन सीतया लिप्तो चारुणा पुरुमावया ॥४४॥ आसन्नानां च वल्लीनां कुसुमैर्वनसौरभैः । लक्ष्मीधरार्पितैः शुक्लैः पूरितान्तरमर्चितौ ॥४५॥ ततस्ते करयुग्माब्जमुकुलभाजितालिकाः । चक्रुयोगीश्वरी भक्त्या वन्दनां विधिकोविदाः ॥४६॥ वीणां च संनिधायाङ्के वधूमिव मनोहराम् । पद्मोऽवादयदत्युद्धं गायन् सुमधुराक्षरम् ॥४७॥ अन्वगायदिमं लक्ष्मीलतालिङ्गितपादपः । वाको किलरवः पुत्रः कैकय्यास्तत्त्वेमादरम् ॥४८॥ महायोगेश्वरा धीरा मनसा शिरसा गिरा । वन्धास्ते साधवो नित्यं सुरैरपि सुचेष्टिताः ॥४९॥ उपमानविनिर्मुक्तं यैरव्याहतमुत्तमम् । प्राप्तं त्रिभुवनख्यातं सुभाग्थैरह दक्षरम् ॥५०॥ मिन्नं यैानदण्डेन महामोहशिलातलम् । दीनं विदन्ति ये विश्वं धर्मानुष्ठानवर्जितम् ॥५॥ गायतोरक्षराण्येवं तयोर्गानर्विधिज्ञयोः । तिरश्चामपि चेतांसि परिप्राप्तानि मार्दवम् ॥५२॥ ततो विदितनिश्शेषचारुनर्तनलक्षणा । मनोज्ञाकल्पसंपन्ना हारमाल्यादिभूषिता ॥५३॥ लीलया परया युक्ता दर्शिताभिनया स्फुटम् । चारुबाहुलतामारा हावभावादिकोविदा ॥५४॥
उन दोनों मुनियोंको घिरा देखा ॥३९-४०॥ उक्त प्रकारके मुनियोंको देख, राम भी लक्ष्मणके साथ सहसा भयको प्राप्त हुए तथा क्षण भरके लिए निश्चल रह गये ॥४१।। सीता भयभीत हो पतिसे लिपट गयी, तब रामने क्षण एकमें भय छोड़कर सीतासे कहा कि डरो मत ॥४२॥ तदनन्तर राम-लक्ष्मणने धीरे-धीरे पास जाकर जो दूर हटानेपर भी बार-बार वहीं लौटकर आते थे ऐसे सांप, बिच्छुओंको धनुषके अग्रभागसे दूर किया ।।४३।।
___ अथानन्तर भक्तिसे भरी सीताने निर्झरके जलसे देर तक उन मुनियोंके पैर धोकर मनोहर गन्धसे लिप्त किये ॥४४।। तथा जो वनको सुगन्धित कर रहे थे एवं लक्ष्मणने जो तोड़कर दिये थे, ऐसे निकटवर्ती लताओंके फूलोंसे उनकी खूब पूजा की ॥४५।। तदनन्तर अंजलिरूपी कमलको बोड़ियोंसे जिनके ललाट शोभायमान थे तथा जो विधि-विधानके जानने में निपुण थे ऐसे उन सबने भक्तिपूर्वक मुनिराजको वन्दना की ॥४६॥ अत्यन्त उत्तम तथा मधुर अक्षरोंमें गाते हुए रामने मनोहर स्त्रीके समान वीणाको गोदमें रखकर बजाया ॥४७॥ इनके साथ ही लक्ष्मणने भी बड़े आदरसे तत्त्वपूर्ण गान गाया। उस समय लक्ष्मण, लक्ष्मीरूपी लतासे आलिंगित वृक्षके समान जान पड़ते थे और उनका मधुर शब्द कोयलको मीठी तानके समान मालूम होता था ॥४८॥ वे गा रहे थे कि जो महायोगके स्वामी हैं, धीर-वीर हैं तथा उत्तम चेष्टाओंसे सहित हैं, उत्तम भाग्यके धारक जिन मुनियोंने उपमासे रहित, अखण्डित, तथा तीन लोकमें प्रसिद्ध 'अर्हत्' यह उत्तम अक्षर प्राप्त कर लिया हैं । जिन्होंने ध्यानरूपी दण्डके द्वारा महामोहरूपी शिलातलको तोड़ दिया है और जो धर्मानुष्ठान-धर्माचरणसे रहित विश्वको दोन समझते हैं ऐसे साधु देवोंके द्वारा भी मनसे, शिरसे तथा वचनसे वन्दनीय हैं ।।४९-५१॥ मानकी विधिको जाननेवाले राम-लक्ष्मण जव इस प्रकारके अक्षर गा रहे थे तब तिर्यंचोंके भी चित्त कोमलताको प्राप्त हो गये थे ॥५२॥
तदनन्तर जो समस्त सुन्दर नृत्योंके लक्षण जानती थो, मनोहर बेषभूषासे युक्त थी, हार माला आदिसे अलंकृत थी, परम लीलासे सहित थी, स्पष्टरूपसे अभिनय दिखला रही थी, जिसकी बाहुरूपी लताओंका भार अत्यन्त सुन्दर था, जो हाव-भाव आदिके दिखलानेमें निपुण थी, लय बदलनेके समय जिसके सुन्दर स्तनोंका मण्डल कुछ ऊपर उठकर कम्पित हो रहा था, जिसके १. भ्राजितललाटाः । २. -माचरन् म.।
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