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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
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सोऽवोचदद्य दिवसस्तृतीयो वर्तते नरः । नक्तमुत्तिष्ठतोऽमुष्मिन्नगे नादस्य' मस्तके ॥१४॥ ध्वनिरश्रुतपूर्वोऽयं प्रतिनादी भयावहः । कस्येति बहुविज्ञानैर्न वृद्धरपि वेद्यते ॥१५॥ संक्षुभ्यतीव भूः सर्वा नन्दन्तीव दिशो दश । सरांसि संचरन्तीव निर्मूल्यन्त इवाज्रिपाः ॥१६॥ रौरवारावरौद्रेण घनेन ध्वनिनामुना । श्रवणौ सर्वलोकस्य ताड्य तेऽयोधनैरिव ॥१७॥ निशागमे किमस्माकं वधार्थमयमुद्यतः । करोति क्रीडनं तावत् कोऽपि विष्टपकण्टकः ॥१८॥ भयेन स्वनतस्तस्मादयं लोको निशागमे । पलायते प्रभाते तु पुनरेति यथायथम् ॥१९॥ साग्रं योजनमेतस्मादतीत्यान्योन्यभाषितम् । शृणोत्ययं जनः किंचित् प्राप्नोति च सुखासिकाम् ॥२०॥ निशम्योक्तमिदं सीता बभाषे रामलक्ष्मणौ । वथमन्यत्र गच्छामो यत्र याति महाजनः ॥२१॥ कालं देशं च विज्ञाय नातिशास्त्रविशारदैः । क्रियते पौरुषं तेन न जातु विपदाप्यते ॥२२॥ प्रहस्यावोचतामेतामुद्विग्ना जनकात्मजाम् । गच्छ स्वं यत्र लोकोऽयं व्रजत्यलघुसाध्वसे ॥२३॥ अन्विष्यन्ती प्रभाते नौ लोकेन सहितामुना । अमुष्मिन् गण्डशैलान्ते गतमीरागमिष्यति ॥२४॥ अस्मिन् महीधरे रम्ये ध्वनिरत्यन्तमीषणः । कस्यायमिति पश्यामो वयमद्येति निश्चयः ॥२५॥ प्रभीष्यते वराकोऽयं लोकः शिशुसमाकुलः । पशुभिः सहितः स्वन्तमस्य को नु करिष्यति ॥२६॥ वैदेही सज्वरेवोचे सततं भवतोरिमम् । हतुं मे ग्रहं शक्तः कः कुलीरग्रहोपमम् ॥२७॥
जा रहे हैं। तब रामने किसी एक मनुष्यसे पूछा कि हे भद्र! यह बहुत भारी भय किस कारणसे है ? ॥१३।। इसके उत्तरमें उस मनुष्यने कहा कि इस पर्वतके शिखर पर रात्रिके समय शब्द उठते हुए आज तीसरा दिन है ।।१४।। जो शब्द पर्वत पर होता है वह हमने पहले कभी नहीं सुना, उसकी प्रतिध्वनि सर्वत्र गूंज उठती है तथा वह अत्यन्त भयंकर है। किस व्यक्तिका शब्द है ? यह बहुविज्ञानी वृद्ध लोग भी नहीं जानते हैं ।।१५।। इस शब्दसे मानो समस्त पृथिवी हिल उठती है, दशों दिशाएँ मानो शब्द करने लगती हैं, सरोवर मानो इधर-उधर फिरने लगते हैं और वृक्ष मानो उखड़ने लगते हैं ॥१६॥ रौद्रतामें नरकके शब्दकी तुलना करनेवाले इस भारी शब्दसे समस्त लोगोंके कान ऐसे फटे पड़ते हैं मानो लोहेके घनोंसे ही ताडित होते हों ।।१७|| जान पड़ता है कि रात्रिके समय हम लोगोंका वध करनेके लिए उद्यत हुआ यह कोई लोकका कण्टक क्रीड़ा करता फिरता है ।।१८। ये लोग उस शब्दके भयसे रात्रि प्रारम्भ होते ही भाग जाते हैं और प्रभात होने पर पुनः वापिस आ जाते हैं ||१९|| यहाँसे कुछ अधिक एक योजन चलकर यह शब्द इतना हलका हो जाता है कि लोग परस्परका वार्तालाप सुन सकते हैं तथा कुछ आराम प्राप्त कर सकते हैं' ॥२०॥
यह सुनकर सीताने राम-लक्ष्मणसे कहा कि जहां ये सब लोग जा रहे हैं वहां हम लोग भी चर्ले ।।२१।। नीतिशास्त्रके ज्ञाता पुरुष देश कालको समझकर पुरुषार्थ करते हैं, इसलिए कभी आपत्ति नहीं आती ॥२२॥ राम-लक्ष्मणने घबड़ायी हुई सीतासे हँसकर कहा कि तुझे बहुत भय लग रहा है इसलिए जहां ये लोग जाते हैं वहाँ तू भी चली जा ॥२३।। प्रभात होनेपर इन लोगोंके साथ हम दोनोंको खोजती हुई निर्भय हो इस पर्वतके समीप आ जाना ॥२४॥ 'इस मनोहर पर्वत पर यह अत्यन्त भयंकर शब्द किसका होता है ? यह आज हम देखेंगे' ऐसा निश्चय किया है ॥२५॥ ये दीन लोग बाल-बच्चोंसे व्याकुल तथा पशुओंसे सहित हैं, इसलिए ये तो भयभीत होंगे ही इनका भला कौन कर सकता है ? ॥२६।। तब जैसे ज्वर चढ़ रहा हो ऐसी कांपती हुई आवाजमें सीताने कहा कि हमेशा आपलोगोंकी हठ केंकड़ेकी पकड़के समान विलक्षण ही है उसे दूर करनेके लिए
१. नादोऽस्य म.। २. भाषितः ज.। ३. अतिभययुक्त। ४. सज्वरा इव ऊचे । सहरेवोचे म. ।
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