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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
अथ नानादुमक्ष्मासु बहुपुष्पसुगन्धिषु । लतामण्डपयुक्तासु सेवितास सुखं मृगैः ॥१॥ देवोपनीतनिश्शेषशरीरस्थितिसाधनौ । आयात रममाणौ तौ ससीतौ रामलक्ष्मणौ ॥२॥ क्वचिद्विद्रुमसंकाशं रामः किसलयं लघु । गृहीत्वा कुरुते कर्ण जानक्याः साध्विति ब्रुवन् ॥३॥ सुतरौं 'संगतां वल्लीं क्वचिदारोप्य जानकीम् । स्वैरं दोलयतः पार्श्ववर्तिनौ रामलक्ष्मणौ ॥४॥ द्रुमखण्डे क्वचिद् स्थित्वा नितान्तघनपल्लवे । कथाभिः सुविदग्धामिः कुरुतस्तद्विनोदनम् ॥५॥ इयमेतदयं वल्ली पलाशं तरुरीक्ष्यताम् । हारिणी हारि हारीति सीतोचे राघवं क्वचित् ॥६॥ क्वचिद् भ्रमरसंघातैमुखसौरभलोलुपैः । कृच्छादरक्षतामेतौ राजपुत्री कदर्थिताम् ॥७॥ शनैर्विहरमाणो तौ ससीतौ शुभविभ्रमौ । काननेषु विचित्रेषु स्वर्वनेषु सुराविव ॥८॥ नानाजनोपभोग्येषु देशेषु निहितेक्षणौ। धीरौ क्रमेण संप्राप्तौ पुरं वंशस्थलद्युतिम् ॥९॥ सुदीर्घोऽपि तयोः कालो गच्छतोः सहसीतयोः । पुण्यानुगतयो सीदपि दुःखलवप्रदः ॥१०॥ अपश्यतां च तस्यान्ते वंशजालातिसंकटम् । नगं वंशधराभिख्यं मित्त्वेव भुवमुदगतम् ॥११॥ छायया तुङ्गशृङ्गाणां यः सन्ध्यामिव संततम् । दधाति निर्झराणां च हसतीव च शीकरैः ॥१२॥ निर्गच्छन्ती प्रजां दृष्ट्वा पुरादथ स एककाम् । रामः पप्रच्छ भोः कस्मात् त्रासोऽयं सुमहानिति ॥१३॥
अथानन्तर जिनकी शरीर-स्थितिके समस्त साधन देवोपनीत थे, ऐसे सीता सहित रामलक्ष्मण रमण करते हुए वनको उन भूमियोंमें आये जो नाना प्रकारके वृक्षोंसे सहित थी, जिनमें नाना फलोंकी सुगन्धि फैल रही थी, जो लतामण्डपोंसे सहित थी तथा मगगण जिनमें सखसे निवास करते थे ॥१-२॥ कहीं राम, मूंगके समान कान्तिवाले पल्लवको तोड़कर तथा उसका कर्णाभरण बनाकर 'यह ठीक रहेगा' इस प्रकार कहते हुए सीताके कानमें पहिनाते थे, तो कहीं किसी वृक्ष पर लटकती लता पर सीताको बैठाकर बगलमें दोनों ओर खड़े हो राम-लक्ष्मण उसे झूला झुलाते थे ॥३-४॥ कहीं सघन पत्तोंवाले द्रुम-खण्डमें बैठकर मनोहर-मनोहर कथाओंसे उसका मनोविनोद करते थे ॥५॥ कहीं सीता रामसे कहती थी कि यह मनोहर लता देखो, कहीं कहती थी कि यह मनोहर पल्लव देखो और कहीं कहती थी कि यह मनोहर वृक्ष देखो ॥६॥ कहीं मुखकी सुगन्धिके लोभी भ्रमरोंके समूह सीताको पीड़ित करते थे, सो ये दोनों भाई बड़ी कठिनाईसे उसकी रक्षा करते थे ॥७॥ जिस प्रकार देव स्वर्गके वनोंमें विहार करते हैं उसी प्रकार शुभ चेष्टाओंके धारक दोनों भाई सीताको साथ लिये नाना प्रकारके वनोंमें धीरे-धीरे विहार करते थे ॥८॥ नाना मनुष्योंसे उपभोग्य देशोंमें दृष्टि डालते हुए वे धीर-वीर क्रमसे वंशस्थाति नामक नगरमें पहुँचे ।।९।। सीताके साथ भ्रमण करते हुए उन पुण्यानुगामी महापुरुषोंको यद्यपि बहुत काल हो गया था तो भी उतना बड़ा काल उन्हें अंशमात्र भी दुःख देनेवाला नहीं हुआ था ॥१०॥
__उस नगरके समीप ही उन्होंने वंशधर नामका पर्वत देखा जो बांसोंके समूहसे अत्यन्त व्याप्त था, पृथिवीको भेदकर ही मानो ऊपर उठा था, ऊँचे-ऊंचे शिखरोंको कान्तिसे जो मानो सदा सन्ध्याको धारण कर रहा था और निर्झरनोंके छींटोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो हंस ही रहा हो ॥११-१२। उन्होंने यह भी देखा कि प्रजाके लोग नगरसे निकल-निकल कर कहीं अन्यत्र १. संस्तुताम् ब. । २. इयं हारिणी वल्ली, एतत् हारि पलाशं, अयं हारी तरुः । ३. स्ववनेषु म. । ४. धारो म.।
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