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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
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मोगैर्नास्ति मम प्रयोजनमिमे गच्छन्तु नाशंखला
इत्येषां यदि सर्वदापि कुरुते निन्दामल द्वेषकः । एतैः सर्वगुणोपपत्तिपटुभिर्यातोऽपि शृङ्गं गिरेः
नित्यं 'याति तथापि निर्जितरविर्दीप्त्या जनः संगमम् ॥१४३॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते जितपद्मोपाख्यानं नामाष्टत्रिंशत्तमं पर्व ॥३८॥
भारी पुण्यका संचय किया है ऐसे सर्व प्राणियोंको प्रिय पुरुष, नाना प्रकारके उत्तम कार्य करते हुए जिस-जिस देश में जाते हैं उसो-उसी देशमें उन्हें विना किसी चिन्ताके समस्त इन्द्रियोंके सुख देने में निपुण मधुर आहार आदिकी सब ऐसी अनुपम विधि मिलती है कि लोकमें जो दूसरोंके लिए दुर्लभ रहती है ॥१४२॥ 'मुझे इन लोगोंसे प्रयोजन नहीं है। ये दुष्ट नाशको प्राप्त हों, इस प्रकार भोगोंसे अतिशय द्वेष रखनेवाला पुरुष यद्यपि सर्वदा इन भोगोंकी निन्दा करता है और इन्हें छोड़कर पर्वतके शिखरपर भी चला जाता है तो भी अपनी कान्तिसे सूर्यको जीतनेवाला पुण्यात्मा पुरुष समस्त गुणोंकी प्राप्ति कराने में समर्थ इन भोगोंके साथ सदा समागमको प्राप्त होता है अर्थात् पुण्यात्मा मनुष्यको इच्छा न रहते हुए भी सब प्रकारकी सुख सामग्री सर्वत्र मिलती है ।।१४३।।
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पनचरितमें जितपनाका
वर्णन करनेवाला अड़तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥३८॥
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