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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
१८७ मनो विषयमार्गेषु मत्तद्विरदविभ्रमम् । वैराग्यबलिना शक्यं रोर्बु ज्ञानाङ्कुशश्रिता ॥१२२॥ परस्त्रीरूपसस्येषु बिभ्राणा लोभमुत्तमम् । अमी हृषीकतुरगा धृतमोहमहाजवाः ॥१२३॥ शरीररथमुन्मुक्ताः पातयन्ति कुवर्मसु । चित्तप्रग्रहमत्यन्तं योग्यं कुरुत तदृढम् ॥१२॥ नमस्यत जिनं भक्त्या स्मरतानारतं तथा । संसारसागरं येन समुत्तरत निश्चितम् ॥१२५॥ मोहारिकण्टकं हित्वा तपःसंयमहेतिभिः । लोकाग्रनगरं प्राप्य राज्यं कुरुत निर्मयाः ॥१२॥ जैनं व्याकरणं श्रुत्वा सुधीविजयपर्वतः । त्यक्त्वा विपुलमैश्वर्य बभूव मुनिपुंगवः ॥१२७।। तावपि भ्रातरौ तस्मिन् श्रुत्वा भक्त्या जिनश्रुतिम् । प्रव्रज्य सुतपोमारौ संगतावाटतुर्महीम् ।।१२८॥ संमेदं च व्रजन्तौ ताविष्टनिर्वाणवन्दनौ । कथंचिन्मार्गतो भ्रष्टावरण्यानीं समाश्रितौ ॥१२९॥ वसुभतिचरेणाथ रौद्रम्लेच्छेन वीक्षितौ । अतिक्रुद्धेन चाहूतौ गिराक्रोशकठोरयाँ ॥१३०॥ जिघांसन्तं तमालोक्य ज्यायान्मुदितमब्रवीत् । मा भैषी तरद्य त्वं समाधानं समाश्रय ॥१३१॥ म्लेच्छोऽयं हन्तुमुद्युक्तो दृश्यते नौ दुराकृतिः। चिराभ्याससमृद्धाया क्षान्तेरद्य विनिश्चयः ॥१३२॥ प्रत्युवाच स तं मोतिः का नौ जिनवचस्थयोः । नूनं मूढतयास्माभिरप्ययं प्रापितो वधम् ।।१३३।। एवं तौ विहितालापौ सविचारं समाश्रितौ । प्रत्याख्यानं शरीरादेः प्रतिमायोगमागतौ ॥१३॥ समीपतां च संप्राप्तो म्लेच्छो हन्तं समुद्यतः । आलोक्य दैवयोगेन सेनेशन निवारितः ॥१३५॥
रामः पप्रच्छ तेनैतौ व्यापादयितुमीप्सितौ । सेनाधिपेन निर्मुक्तौ रक्षितौ केन हेतुना ॥१३६॥ है और मृत्यु उसे अचानक ही दु:खी करना चाहती है ॥१२१॥ विषयोंके मार्गमें मदोन्मत्त हाथीके समान दौड़ता हुआ यह मन ज्ञानरूपी अंकुशको धारण करनेवाले वैराग्यरूपी बलवान् पुरुषके द्वारा ही रोका जा सकता है ॥१२२॥ जो शरीररूपी धान्यमें उत्तम लोभको धारण कर रहे हैं तथा जो महामोहरूपी वेगको धारण कर लम्बी चौकड़ी भर रहे हैं ऐसे ये इन्द्रियरूपी घोड़े शरीररूपी रथको कुमार्गमें गिरा देते हैं, इसलिए मनरूपी लगामको अत्यन्त दृढ़ करो ॥१२३-१२४॥ भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार करो और निरन्तर उन्हींका स्मरण करो जिससे निश्चयपूर्वक संसार-सागरको पार कर सको ॥१२५॥ तप और संयमरूपी शस्त्रोंके द्वारा मोहशत्रुरूपी कंटकको नष्ट कर मोक्षरूपी नगरको प्राप्त करो तथा निर्भय होकर वहाँका राज्य करो ॥१२६॥ इस प्रकार
नाचार्यका व्याख्यान सनकर उत्तम बद्धिको धारण करनेवाला राजा विजयपर्वत विशाल वैभवका परित्यागकर श्रेष्ठ मुनि हो गया ॥१२७॥ दूतके पुत्र दोनों भाई उदित और मुदित भक्तिपूर्वक जिनवाणी सुनकर दीक्षित हो गये और उत्तम तपको धारण करते हुए एक साथ पृथिवीपर विहार करने लगे ॥१२८॥ निर्वाण क्षेत्रकी वन्दनाकी अभिलाषा रखते हुए वे सम्मेदाचलको जा रहे थे, सो किसी तरह मार्ग भूलकर एक महाअटवीमें जा पहुंचे ॥१२९।। वसुभूतिका जीव मरकर उसी अटवीमें पुष्टम्लेच्छ हुआ था, सो उसने देखते ही अत्यन्त ऋद्ध होकर कठोर वाणीसे उन्हें बुलाया ॥१३०॥ उसे मारनेके लिए उत्सुक देख बड़े भाई उदितने मदितसे कहा कि हे भाई ! भयभीत मत हो, इस समय समाधि धारण करो, चित्त स्थिर करो ॥१३१।। दुष्ट आकृतिको धारण करनेवाला या म्लेच्छ हम दोनोंको मारने के लिए तत्पर दिखाई देता है सो हम लोगोंने चिरकालके अभ्याससे जिस क्षमाको समृद्ध बनाया है आज उसकी परीक्षाका अवसर है॥१३२॥ मुदितने बड़े भाईको उत्तर दिया कि जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंमें स्थिर रहनेवाले हम लोगोंको भय किस बातका है ? निश्चयसे हम लोगोंने भी इसका वध किया होगा॥१३३॥ इस प्रकार वार्तालाप करते हुए दोनों भाई विचारपूर्वक खड़े हो गये और शरीर आदिसे ममता छोड़ प्रतिमा योगको प्राप्त हुए ॥१३४॥ तदनन्तर मारनेकी इच्छा रखता हआ वह भील उनके पास आया परन्तु देवयोगसे भीलोंके सेनापतिने उसे देख लिया जिसे मना कर दिया ॥१३५॥ यह सुन, रामने केवलीसे पूछा कि भील इन्हें क्यों मारना १. हेतुभि: म. । २. व्याख्यानं । ३. सम्मोदं ख. । ४. क्रोशकुठारया म. ।
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