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पद्मपुराणे वदन्ती पुनरेवं सा पद्मनाभस्य पृष्ठतः । लक्ष्मीधरकुमारस्य जगामावस्थिता पुरः ॥२८॥ आरोहन्ती गिरि देवी प्रखिन्नक्रमपङ्कजा । रराज शृङ्गमब्दस्य चन्द्ररेखेव निर्मला ॥२९॥ चन्द्रकान्तेन्द्रनीलान्तःस्थिता पुष्पमणेरसौ । शलाकेवाभवत्तस्य पर्वतस्य विभूषणम् ॥३०॥ भृगुपातपरित्रस्तां वचिदुक्षिप्य तामिमौ । नयतोऽन्यत्र विश्रब्धहस्तालम्बनकोविदौ ॥३१॥ विषमग्रावसंघातं 'निस्तीर्य त्रासवर्जितौ । विस्तीर्णनगमूर्धानं ससीतौ तावपापतुः ॥३२॥ अथ सद्ध्यानमारूढौ प्रलम्बितमहाभुजौ । साधयन्तौ सुदुस्साध्यां प्रतिमां चतुराननाम् ॥३३॥ परेण तेजसा युक्तावब्धिधीरौ नगस्थिरौ । शरीरचेतनान्यत्ववेदिनौ मोहवर्जितौ ॥३४॥ जातरूपधरौ कान्तिसागरौ नवयौवनौ । संयती प्रवराकारौ ददृशुस्ते यथोदितौ ॥३५॥ दध्युश्च विस्मयं प्राप्ता यथा मुक्त्वाशुमार्जनम् । निस्सारमीहितं सर्व संसारे दुःखकारणम् ॥३६॥ मित्राणि द्रविणं दाराः पुत्राः सर्वे च बान्धवाः । सुखदुःखमिदं सर्व धर्म एकः सुखावहः ॥३७॥ डुढौकिरे च भक्त्याझ्या मूर्धविन्यस्तपाणयः । दधानाः परमं तोषं विनयानतविग्रहाः ॥३८॥ यावद्ददृशुरत्युप्रैविस्फुरद्भिर्महास्वनैः । मिन्नाञ्जनसमच्छायैश्चलजिह्वः पृदाकुमिः ॥३९॥ समुद्यतालकैर्भीमेश्वल निरनिशं धनैः । नानावणैरतिस्थूलैवेष्टितौ वृश्चिकैश्च तौ ॥४०॥
कौन समर्थ है ? ॥२७॥ ऐसा कहती हुई वह रामके पीछे और लक्ष्मणके आगे खड़ी हो चलने लगी ॥२८॥ जिसके चरणकमल खेदखिन्न हो गये थे, ऐसी सीता पहाड़ पर चढ़ती हुई इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानो मेघके शिखर पर चन्द्रमाकी निर्मल रेखा ही है ॥२९॥ राम और लक्ष्मणके बीचमें खड़ी सीता चन्द्रकान्तमणि और नीलमणिके मध्यमें स्थित स्फटिकमणिकी शलाकाके समान पर्वतका आभूषण हो रही थी ॥३०॥ जहाँ कहीं सीताको गोल चट्टानोंसे नीचे गिरनेका भय होता था वहां वे दोनों, उसे ऊपर उठाकर ले जाते थे और जहाँ गिरनेका भय नहीं होता था वहाँ निश्चिन्ततापूर्वक हाथका सहारा देकर ले जाते थे ।।३१।। इस प्रकार ऊंची-नीची चट्टानोंका समूह पारकर भयसे रहित राम-लक्ष्मण सीताके साथ पर्वतके चौड़े शिखर पर जा पहुँचे ॥३२॥
__अथानन्तर उन्होंने ऊपर जाकर ऐसे दो मुनि देखे जो उत्तमध्यानमें आरूढ थे, जिनकी लम्बी भुजाएँ नीचेकी ओर लटक रही थीं, जो अत्यन्त दुःसाध्य चतुर्मुखी प्रतिमाको सिद्ध कर रहे थे, परम तेजसे युक्त थे, समुद्र के समान गम्भीर थे. पर्वतके समान स्थिर थे, शरीर और आत्माकी भिन्नताको जाननेवाले थे, मोहसे रहित थे, दिगम्बर-मुद्राको धारण करनेवाले थे, कान्तिके सागर थे, नूतन तारुण्यसे युक्त थे, उत्तम आकारके धारक थे और आगमोक्त आचरण करनेवाले थे ॥३३-३५|| आश्चर्यको प्राप्त हुए वे तीनों अशुभ कर्मोंके आश्रयका परित्याग कर इस प्रकार विचार करने लगे कि संसारमें प्राणियोंकी समस्त चेष्टाएँ निःसार तथा दुःखके कारण हैं ॥३६|| मित्र, धन, स्त्री, पुत्र, और भाई-बन्धु आदि सभी सुख-दुःख रूप हैं, एक धर्म ही सुखका कारण है ॥३७॥ तदनन्तर जो भक्तिसे युक्त थे, जिन्होंने हाथ जोड़कर मस्तक पर लगा रक्खे थे, जो परम सन्तोषको धारण कर रहे थे, और विनयसे जिनके शरीर नम्रीभूत हो रहे थे, ऐसे वे तीनों उक्त मुनिराजोंके पास गये ॥३८॥ दर्शन करते ही उन्होंने, जो अत्यन्त भयंकर थे, इधर-उधर चल रहे थे, विकट शब्द कर रहे थे, मसले हुए अंजनके समान कान्तिवाले थे, तथा जिनकी जीभें लपलपा रही थीं ऐसे साँपोंसे और जिन्होंने अपनी पूंछ ऊपर उठा रक्खी थी, जो अत्यन्त भयंकर थे, रात-दिन एक-दूसरेसे सटकर चल रहे थे, नाना रंगके थे, एवं बहुत मोटे थे, ऐसे बिच्छुओंसे १, विस्तीर्य म. । २. सर्वेऽपि क. । ३. सर्पः । ४. वेष्टितैर्वृश्चिकैश्च म. ।
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