________________
अष्टत्रिंशत्तम पर्व
१७३
अमात्यवदनं वीक्ष्य राजावोचद्विशत्विाते । ततः सुतः सुमित्रायाः प्रतीहारोदितोऽविशत् ॥८॥ तं दृष्ट्वा सुन्दराकारं सुगम्भीरापि सा सभा । समुद्रमूर्तिवरक्षोभं गता शीतांशुदर्शने ।।८९।। प्रणामरहितं दृष्ट्वा विकटांसं सुभासुरम् । किंचिद्विकृतचेतस्कस्तमपृच्छदरिंदमः ॥१०॥ कुतः समागतः कस्त्वं किमर्थ क्व कृतश्रमः । ततो लक्ष्मीधरोऽवोचत् प्रावृषेण्यधनध्वनिः ॥११॥ बायोऽहं भरतस्यापि महीहिण्डनपण्डितः । विद्वान् सर्वत्र ते भटकतं दुहितुर्मानमागतः ।।१२।। अमग्नमानशृङ्गेयं दुष्टकन्यागवी त्वया । पोषिला सर्वलोकस्य वर्तते दुःखदायिनी ॥१३॥ सोऽवोचद् यो मया मुक्तां शकःशक्ति प्रतीक्षितुम् । कोऽसौ नु जितपमाया मानस्य ध्वंसको भवेत् ॥१४॥ उवाच लक्ष्मणः शक्त्या ग्रहणं मे किमेकया । शक्तीः पञ्च विमञ्च त्वं मयि शक्त्या समस्तया ॥९५।। विवादो गर्षिणोरेवं प्रवृत्तो यावदेतयोः। गवाक्षा विनिडास्तावपिहिता वनितानः ॥९॥ परित्यक्त नरद्वेषा दृष्ट्वा लक्ष्मणपुङ्गवम् । नियंहस्था जिताम्सोजा संज्ञादानादवारयत् ॥१७॥ दक्षबद्धाञ्जलिं भीमं सौमित्रिरिति संज्ञया । चकार जातवोधा तां मा भैषीरिति संनदी ॥२८॥ जगाद च किमद्यापि कातर त्वं प्रतीक्षसे । विसुन्धारिंदमामिख्य शक्ति शक्ति निवेदय ॥१९॥ इत्युक्तः कुपितो राजा बद्ध्वा परिकरं दृढम् । ज्वलत्पावकसंकाशां दाक्किमेकामगाददौ ॥१०॥ प्रतीच्छेच्छसि मतु चेदित्युक्त्वा भृकुटीं दधत् । वैशाख स्थानकं कृत्वा तां मुमोच विधानविद ॥१०॥
जिसकी प्रभा नील कमलके समान है, जिसके नेत्र कमलोंके समान सुशोभित हैं तथा जो अत्यन्त सौम्य है ऐसा एक शोभासम्पन्न पुरुष द्वार पर खड़ा है ॥८७|| मन्त्रीके मुखकी ओर देख राजाने कहा कि 'प्रवेश करे'। तदनन्तर द्वारपालके कहने पर लक्ष्मणने भीतर प्रवेश किया ॥८॥ यद्यपि वह सभा गम्भीर थी तो भी जिस प्रकार चन्द्रमाको देखकर समुद्र क्षोभको प्राप्त होता है उसी प्रकार वह सभा भी सुन्दर आकारके धारक लक्ष्मणको देखकर क्षोभको प्राप्त हो गयी ।।८।। प्रणामरहित, विशाल कन्धोंके धारक तथा अतिशय देदीप्यमान लक्ष्मणको देखकर जिसका हृदय कुछ-कुछ विकृत हो रहा था ऐसे राजा शबूंदमने पूछा कि तु कहांसे आया है ? कौन है ? और किस लिए आया है ? इसके उत्तरमें वर्षा ऋतुके मेधके समान गम्भीर ध्वनिको धारण करनेवाले लक्ष्मणने कहा ।।९०-९१॥ कि मैं राजा भरतका सेवक हूँ, पृथ्वीपर घूमने में निपुण हूँ, सब विषयोंका पण्डित हूँ और तुम्हारी पुत्रीका मान भङ्ग करनेके लिए आया हैं |९२॥ जिसके मानरूपी सींग अभग्न हैं ऐसी जो दुष्ट कन्यारूपी मरकनी गाय तुमने पाल रक्खी है वह सब लोगोंको दुःख देनेवाली है ॥९३।। राजा शव॒दमने कहा कि जो मेरे द्वारा छोड़ी हुई शक्तिको सहन करने में समर्थ है ऐसा वह कौन पुरुष है जो जितपद्माका मान खण्डित करने वाला हो ॥९४॥ लक्ष्मणने कहा कि मैं एक शक्तिको क्या ग्रहण करूँ? तु पूरी सामर्थ्य के साथ मझपर पाँच शक्तियां छोड़ ।।१५।। यहां जब तक दोनों अहंकारियोंके बीच इस प्रकारका विवाद चल रहा था वहाँ तब तक राजमहलके सघन झरोखे स्त्रियोंके मुखोंसे आच्छादित हो गये !९६॥ जितपद्मा भी लक्ष्मणको देख मोहित हो गयी और पुरुषोंके साथ द्वेषको छोड़कर छपरी पर आ बैठी तथा इशारा देकर लक्ष्मणको मना करने लगी ॥९७।। तब हर्षसे भरे लक्ष्मणने भयभीत तथा हाथ जोड़कर बैठी हुई जितपद्माको इशारा देकर जताया कि भय मत करो ।।९८|| और राजासे कहा कि अरे कातर! अब भी क्या प्रतीक्षा कर रहा है ? शशृंदम नाम रखे फिरता है शक्ति छोड़ और पराक्रम दिखा ॥९९।। इस प्रकार कहने पर राजाने कुपित हो अच्छी तरह कमर कसी और जलती हुई अग्निके समान एक शक्ति उठायी ॥१००॥ तदनन्तर 'यदि मरना ही चाहता है तो ले झेल' यह कहकर भौंहको धारण करनेवाले विधि-विधानके ज्ञाता राजाने आलीढ़ आसनसे खड़ा होकर वह गदा १. न. म., ज. । २. शक्तिनामकशस्त्रम् । ३. पराक्रमम् । ४. प्रतीक्षेच्छसि म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org