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पद्मपुराणे
'अयत्नेनेव सा तेन धृता दक्षिणपाणिना । वर्तिकाग्रहणे को वा बहुमानो गरुत्मतः ॥१०२॥ द्वितीयेतरहस्तेन कक्षाभ्यां वे सुविभ्रमः । शुशुभे सुभृशं तामिश्चतुर्दन्त इव द्विपः ॥१०३॥ संक्रुद्धमोगिमोगोमां संप्राप्तामथ पञ्चमीम् । दन्ताग्राभ्यां दधौ शक्ति पेशीमिव मृगाधिपः ॥१०४॥ ततो देवगणाः स्वस्था ववृषः पुष्पसंहतिम् । ननतस्ताडयांश्चक्रर्दन्दमीश्च तस्वनाः॥१०५॥ प्रतीच्छारिंदमेदानी शक्ति त्वमिति लक्ष्मणे । कृतशब्दे परं प्राप साध्वसं सकला जनः ॥१०६॥ तमक्षततनं दृष्टा लक्ष्मीनिलयवक्षसम् । विस्मितोऽरिंदमो जातस्त्रपावनमिताननः ॥१०॥ जितपद्मा तत: प्राप स्मितच्छायानतानना । लक्ष्मीधरं समाकृष्टा रूपेणाचरितेन च ॥१०८॥ धृतशक्तः समीपेऽस्य सा तन्वी शुशुभेतराम् । कुलिशायुधपावस्था शचीवं विनतानना ॥१०॥ नवेन संगमेनास्या हृदयं तस्य कम्पितम् । यमासीत् कम्पितं जातु संग्रामेषु महत्स्वपि ॥११०॥ पुरस्तातनरेशानां कन्यया लक्ष्मणा वृतः । विभिद्यापनपापाली तद्भरन्यस्तनेत्रया ॥११॥ सद्यो विनयनम्राङ्गो राजानं लक्ष्मणोऽब्रवीत् । मामकाहसि मे क्षन्तुं शैशवादुर्विचेष्टितम् ॥११२॥ बालानां प्रतिकूलेन कर्मणा वचसापि वा । भवद्विधा सुगम्भीरा नैव यान्ति विकारिताम् ॥११३॥ ततः शत्रंदमोऽप्येनं सप्रमोदः ससंभ्रमः । स्तम्बरमकरामाभ्यां कराभ्यां परिषष्वजे ॥११४॥ उवाच च परिक्लिन्नगण्डांश्चण्डान् गजान् क्षणात् । योऽजैषं भीमयुद्धेषु भद्र सोऽहं स्वया जितः ॥११५॥
छोड़ दी ॥१०१।। लक्ष्मणने बिना किसी यत्नके ही दाहिने हाथसे वह शक्ति पकड़ ली सो ठीक ही है क्योंकि बटेरके पकड़ने में गरुडका कौन-सा बड़ा मान होता है ? ||१०२।। दूसरी शक्ति दूसरे हाथसे तथा तीसरी चौथी शक्ति दोनों बगलोंमें धारण कर पुलकते हुए लक्ष्मण उनसे चार दाँतोंको धारण करनेवाले ऐरावत हाथीके समान अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१०३॥ अथानन्तर अत्यन्त कुपित सांपकी फणकी नाई जो पाँचवीं शक्ति आयी उसे लक्ष्मणने दाँतोंके अग्रभागसे उस प्रकार पकड़ लिया जिस प्रकार कि मृगराज मांसकी डलीको पकड़ रखता है।।१०४॥ तदनन्तर आकाशमें खड़े देवोंके समूह पुष्प बरसाने लगे, नृत्य करने लगे तथा हर्षसे शब्द करते हुए दुन्दुभि बाजे बनाने लगे ॥१०५॥
अथानन्तर 'शबूंदम ! अब तू मेरी शक्ति झेल' इस प्रकार लक्ष्मणके कहनेपर सबलोग अत्यन्त भयको प्राप्त हुए ॥१०६॥ राजा शत्रुन्दम लक्ष्मणको अक्षत शरीर देख विस्मयमें पड़ गया और लज्जासे उसका मुख नीचा हो गया ॥१०७।। तदनन्तर मन्द मुसकानकी छायासे जिसका मख नीचेकी ओर हो रहा था ऐसा जितपद्मा रूप तथा आचरणसे खिचकर लक्ष्मणके पास आयी ॥१०८॥ शक्तियोंको धारण करनेवाले लक्ष्मणके पास वह कृशाङ्गी, इस तरह अत्यन्त सुशोभित हो रही थी जिस तरह कि वज्रके धारक इन्द्रके पास खड़ी नतमुखी इन्द्राणी सुशोभित होती है ।।१०९॥ लक्ष्मणका जो हृदय बड़े-बड़े संग्रामोंमें भी कभी कम्पित नहीं हुआ था वह जितपद्माके नूतन समागमसे कम्पित हो गया ॥११०॥ तदनन्तर लज्जाके भारसे जिसके नेत्र नीचे हो रहे थे ऐसी जितपद्माने पिता तथा अन्य अनेक राजाओंके सामने लज्जा छोड़कर लक्ष्मणका वरण किया ॥१११॥ तत्काल ही विनयसे जिसका शरीर नम्रीभूत हो रहा था ऐसे लक्ष्मणने राजासे कहा कि हे माम ! लड़कपनके कारण मैंने जो खोटी चेष्टा की है उसे आप क्षमा करनेके योग्य हैं ॥११२।। बालकोंके विपरीत कार्य अथवा विरुद्ध वचनोंसे आप जैसे महागम्भीर पुरुष विकार भावको प्राप्त नहीं होते ॥११३।।
तदनन्तर हर्ष और संभ्रमसे सहित राजा शदमने भी हाथोकी संडके समान लम्बी तथा सुपुष्ट भुजाओंसे लक्ष्मणका आलिंगन किया ॥११४|| और कहा कि हे भद्र ! जिस मैंने १. अयनेनैव म. । २. भोगानां म.। ३. प्रतीक्षा म.। ४. शची विनमितानना म. ।
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