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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
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अन्नं वरगुणं भुक्त्वा लक्ष्मणेनोपसाधितम् । माध्वीकं सीतया सार्धमसेवत हलायुधः ॥५९॥ 'प्रासादगिरिमालाभिस्ततो हृतनिरीक्षणः । लक्ष्मणः पद्मतोऽनुज्ञां प्राप्य प्रश्रययाचिताम् ॥६०॥ दधानः प्रवरं माल्यं पीताम्बरधरः शुभः । स्वैरं क्षेमाञ्जलिं दृष्टं प्रतस्थे चारुविभ्रमः ॥६॥ नानालतोपगूढानि काननानि वराण्यसौ। सरितः स्वच्छतोयाश्च शुभ्राभ्रसमसैकताः ॥६२॥ विचित्रधातुरङ्गाश्च परिक्रीडनपर्वतान् । देवधामानि तुङ्गानि कूपान् वापीः सभाः प्रपाः ॥६३।। लोकं च विविधं पश्यन् दृश्यमानः सविस्मयम् । विवेश नगरं धीरो नानाव्यापारसंकुलम् ॥६४॥ शृणु शृण्वति तत्रायं प्रधानविशिखागतम् । अशृणोत्पौरतः शब्दमिति विश्रब्धभाषितम् ॥६५॥ पुरुषः कोऽन्वसौ लोके यो मुक्तां राजपाणिना । शक्ति प्रसह्य शूरेन्द्रो जितपद्मो गृहीष्यति ॥६६॥ स्वर्गे राज्य ददामोति राजा चेत्प्रतिपद्यते । तथापि नानया कृत्यं कथया शक्तियातया ॥६७॥ जातश्चाभिमुखः शक्तेः प्राणश्च परिवर्जितः । किं करिष्यति कन्यास्य राज्यं वा त्रिदशालये ॥६॥ समस्तेभ्यो हि वस्तुभ्यः प्रियं जगति जीवितम् । तदर्थमितरत् सर्वमिति को नावगच्छति ॥६९॥ श्रुत्वैवं कौतुकी कंचिदथ पप्रच्छ मानवम् । भद्र ! का जितपद्मयं यदर्थ भाषते जनः ॥७॥ सोऽवोचन्मृत्युकन्यासावतिपण्डितमानिनी । किं न ते विदिता सर्वलोकविख्यातकीर्तिका ॥७॥ एतन्नगरनाथस्य राज्ञः तः । कनकाभासमुत्पन्ना दुहिता गुणशालिनी ॥७२॥ यतोऽनया जितं पद्मं कान्त्या वदनजातया । पद्मा च सर्वगात्रेण जितपद्मोदिता ततः ।।७३।।
जिस प्रकार कि सौमनस वनमें देव ठहर जाते हैं ॥५८॥ वहाँ लक्ष्मणके द्वारा तैयार किया उत्तम भोजन ग्रहण कर रामने सीताके साथ दाखोंका मधुर पेय दिया ।।५९||
तदनन्तर बड़े-बड़े महलरूपी पर्वतोंकी पंक्तियोंसे जिनके नेत्र हरे गये थे ऐसे लक्ष्मण विनयपूर्वक रामसे आज्ञा प्राप्त कर इच्छानुसार क्षेमांजलि नगर देखनेके लिए चले। उस समय वे उत्तम मालाएँ और पीतवस्त्र धारण किये हुए थे तथा सुन्दर विलाससे सहित थे ॥६०-६१।। नाना लताओंसे आलिंगित उत्तमोत्तम वनों, स्वच्छ जलसे भरी तथा शुक्लमेघोंके समान उज्ज्वल तटोंसे शोभित नदियों, नाना प्रकारकी धातुओंसे रंग-बिरंगे क्रीड़ा-पर्वतों, ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिर, कुओं, वापिकाओं, सभाओं, पानीयशालाओं और अनेक प्रकारके मनुष्योंको देखते हुए उन्होंने नाना प्रकारके व्यापार-कार्योंसे युक्त नगरीमें बड़ी धीरतासे प्रवेश किया। लोग उन्हें बड़े आश्चर्यस देख रहे थे ॥६२-६४। जब ये नगरके प्रधान मार्ग में पहुंचे तब उन्होंने किसी नगरवासीसे निश्चिन्ततापूर्वक कहा हुआ यह शब्द सुना ॥६५॥ वह किसीसे कह रहा था कि अरे सुनो-सुनो, संसारमें ऐसा कौन शूरवीर पुरुष है जो राजाके हाथसे छोड़ी हुई शक्तिको सहकर 'जितपद्मा' कन्याको ग्रहण करेगा? ॥६६।। यदि राजा यह भी कहे कि मैं स्वर्गका राज्य देता हूँ तो भी शक्तिसे सम्बन्ध रखनेवाली इस कथासे क्या प्रयोजन है ? ॥६७।। यदि कोई शक्ति झेलने के लिए सम्मुख हुआ और प्राणोंसे रहित हो गया तो यह कन्या और स्वर्गका राज्य उसका क्या कर लेगा ? ॥६८॥ संसारमें समस्त वस्तुओंसे जीवन ही प्यारा है और उसीके लिए अन्य सब प्रयत्न है यह कौन नहीं जानता है ? ॥६९।।
अथानन्तर इस प्रकारके शब्द सनकर लक्ष्मणने कोतकवश किसी मनुष्यसे पूछा कि हे भद्र ! यह जितपद्मा कौन है ! जिसके लिए लोग इस प्रकार वार्ता कर रहे हैं ।।७०।। इसके उत्तरमें उस मनुष्यने कहा कि जिसकी कीर्ति समस्त संसारमें व्याप्त है तथा जो अपने आपको अति पण्डित मानती है ऐसी इस कालकन्याको क्या तुम नहीं जानते ? |७१|| यह इस नगरके राजा शत्रुदमनको कनकाभा रानीसे उत्पन्न गुणवती पुत्री है ।।७२।। चूंकि इसने मुखको कान्तिसे कमलको १. प्रसाद-ख. । २. एतन्नामधेयां कन्यां ।
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