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पद्मपुराणे ततः सुप्तजने काले विदितौ तौ न केनचित् । निर्गत्य नगराद्गन्तुं प्रवृत्तौ सह सीतया ॥४३॥ प्रभाते तद्विनिर्मुक्त पुरं दृष्ट्वाखिलो जनः । परमं शोकमापन्नः कृच्छ्रेणाधारयत्तनुम् ॥४४॥ वनमाला गृहं दृष्ट्वा लक्ष्मणेन विवर्जितम् । समयेष समालम्ब्य जीवितं शोकिनी स्थिता ॥४५॥ विहरन्तौ ततः क्षोणी लोकविस्मयकारिणौ । मुमुदाते महासत्त्वौ ससीतौ रामलक्ष्मणौ ॥४६॥ युवत्युज्ज्वलवल्लीनां मनोनयनपल्लवान् । तावनङ्गतुषारेण दहन्तावाटतुः शनैः ॥४७॥ कस्य पुण्यवतो गोत्रमेताभ्यां समलंकृतम् । सुजाता जननी सैका लोके येतावजीजनत् ॥४८॥ धन्येयं वनितैताभ्यां समं या चरति क्षितिम् । ईदृशं यदि देवानां रूपं देवास्ततः स्फुटम् ॥४९॥ कतः समागतावेतौ बजतो वा क सुन्दरौ । वाञ्छतः किमिमौ का सृष्टिरीदगियं कथम् ॥५०॥ सख्योऽनेन पथा दृष्टौ पुण्डरीकनिरीक्षणौ । ब्रजन्तौ सहितौ नार्या क्वचिञ्चन्द्रनिभाननौ ॥५१॥ यदिमौ शोभिनौ मुग्धे मनुष्यावथवा सुरौ । तत्किमर्थं त्वया शोको धार्यते गतलजया ॥५२॥ अयि मुढे न पुण्येन नितान्तं भूरिणा विना । लभ्यते सुचिरं द्रष्टुमेवंविधनराकृतिः ॥५३॥ निवर्तस्व भज स्वास्थ्यं स्रस्तं वसनमुद्धर । मा नैषीर्लोचने खेदमतिमात्रप्रसारिते ॥५४॥ नेत्रमानसचौराभ्यां दृष्टाभ्यामपि बालिके । निष्ठुराभ्यां किमेताभ्यां काभ्यामपि तिं मज ॥५५॥ इत्याद्यालापसंसक्तं कुर्वाणावबलाजनम् । रेमाते शुद्धचित्तौ तौ स्वेच्छाविहतिकारिणौ ॥५६॥ नानाजनपदाकीणों पर्यट्य धरिणीमिमौ । क्षेमाञ्जलिसमाख्यानं संप्राप्तौ परम पुरम् ॥५७॥ उद्याने निकटे तस्य 'जलदोत्करसंनिभे । अवस्थिताः सुखेनैते यथा सौमनसे सुराः ॥५८॥
तदनन्तर जब सब लोग सो गये तब किसीके बिना जाने ही राम लक्ष्मण और सीताके साथ नगरसे निकलकर आगेके लिए चल पड़े ॥४३॥ जब प्रभात हुआ तब नगरको उनसे रहित देख समस्त जन परम शोकको प्राप्त हुए तथा बड़े कष्टसे शरीरको धारण कर सके ॥४४॥ वनमाला भी घरको लक्ष्मणसे रहित देख बहुत शोकको प्राप्त हुई तथा लक्ष्मणके द्वारा की हुई शपथोंका आश्रय ले जीवित रही ॥४५॥ तदनन्तर महान् धैर्यके धारक राम-लक्ष्मण पृथ्वीपर विहार करते हुए परम आनन्दको प्राप्त हुए। उन्हें देख लोगोंको आश्चर्य उत्पन्न होता था॥४६॥ वे तरुण स्त्रीरूपी उज्ज्वल लताओंके मन और नेत्ररूपी पल्लवोंको कामरूपी तुषारसे जलाते हुए धीरे-धीरे विहार करते थे ॥४७॥ हे सखि ! इन दोनोंने किस पुण्यात्माका कुल अलंकृत किया है ? वह कौनसी भाग्यशालिनी माता है जिसने इन दोनोंको जन्म दिया है ? ॥४८॥ यह स्त्री धन्य है जो इनके साथ पृथ्वी पर विहार कर रही है। यदि ऐसा रूप देवोंका होता है तो निश्चित ही ये देव हैं ॥४९॥ ये सुन्दर पुरुष कहाँसे आये हैं ? कहाँ जा रहे हैं ? और क्या करना चाहते हैं इनको यह
से हो गयी?॥५०॥ जिनके नेत्र कमलके समान तथा मख चन्द्रमाके तुल्य है ऐसे दो पुरुष एक स्त्रीके साथ इस मार्गसे जा रहे थे सो हे सखियो ! तुमने देखे ॥५१॥ हे मुग्धे ! ये अतिशय सुशोभित व्यक्ति मनुष्य हों अथवा देव, तू निलंज्ज होकर शोक किस लिए धारण कर रही है ? ॥५२॥ अयि मूर्खे! ऐसे मनुष्योंका रूप बहुत भारी पुण्यके बिना चिरकाल तक देखनेको प्राप्त नहीं होता ॥५३।। इसलिए लौट जा, स्वस्थ हो, नीचे खिसके हुए वस्त्रको सँभाल और अत्यधिक पसारे हुए नेत्रोंको खेद मत प्राप्त करा ॥५४!! अरी बाले ! नेत्र और मनको चुरानेवाले इन कठोर पुरुषोंके देखनेसे क्या प्रयोजन है ? धीरज धर ॥५५॥ इस प्रकार स्त्रीजनोंको वार्तालाप करनेमें तत्पर करते हुए शुद्धचित्तके धारक वे दोनों स्वेच्छासे विहार कर रहे थे ॥५६॥ इस प्रकार नाना देशोंसे व्याप्त पृथिवीमें विहार करते हुए वे क्षेमांजलि नामके परम सुन्दर नगरमें पहुंचे ॥५७|| उस नगरके निकट ही वे मेघसमूहके समान सुन्दर एक उद्यानमें सुखपूर्वक इस प्रकार ठहर गये १. मेघसमूहसदृशे ।
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